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________________ १८० | अप्पा सो परमप्पा प्रतीत होने पर भी भीतर में भौतिकता की प्यास और प्रीति जगाती रहती है। आत्मार्थी की दृष्टि में व्यवहार-निश्चय-रत्नत्रयो जिनेश्वर सर्वज्ञ वीतराग देव, गुरु और सद्धर्म का तथा सर्वज्ञ आप्त पुरुषों द्वारा कथित नौ तत्त्व, पड्द्रव्य आदि भावों को सम्यक् प्रकार से जानना, उनके प्रति दृढश्रद्धा रखना और तदनुसार संयम, नियम, ब्रत आदि का यथाशक्ति आचरण करना, यह क्रमश: व्यवहारदृष्टि से रत्नत्रयी (सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र) है। 'पर' पदार्थों की चिन्ता छोड़कर अपनी आत्मा का ही श्रद्धान, उसी के स्वरूप का ज्ञान और चित्त का अन्य विकल्पों से रहित होकर स्व-स्वरूप में ही रमण करना, उसी में लीन होना, यह है क्रमश: निश्चय-रत्नत्रयी। व्यवहाररत्नत्रयी को भेदरत्नत्रयी और निश्च य रत्नत्रयी को अभेदरत्नत्रयी भी कहा जा सकता है । निश्चयनय से इन तीनों को एकरूप जानना-मानना निश्चय रत्नत्रयी है । अर्थात्-आत्मा का शुद्ध बुद्ध, अखण्ड, निरागी, सच्चिदानन्दमय स्वरूप ज्ञान से जानना ज्ञान है, जानकर आत्मा की एकरूपता, अभिन्नता, वीतरागता तथा अनन्त आनन्दमयता की आत्मा में ही अनुभूति, प्रतीति या दृढश्रद्धा करना दर्शन है और ऐसा अनुभव आत्मा का उपयोग सतत अस्खलित रूप से प्रवाह रूप से स्वयं का रहे वह चारित्र है। मूलमार्ग रहस्य में श्रीमद् राजचन्द्र ने यही कहा है ते त्रण अभेद परिणाम थी रे, ज्यारे वर्तते आत्मारूप तेह मारग जिननोपामियो रे, किवा पाम्यो ते निजस्वरूप ।। व्यवहाररत्नत्रयी के साथ आत्मज्ञान-आत्मश्रद्धान और आत्म. स्वरूपाचरण का भान, भाव और लक्ष्य न हो तो वह भावहीन व्यवहार रत्नत्रय भव वृद्धि का कारण हो जाता है । इसलिए वही सद्व्यवहाररत्न १ आत्माऽऽत्मन्येव यच्छुद्ध', जानात्यात्मानमात्मना । सेवं रत्नत्रये ज्ञप्ति-रुच्या चारकता मुनेः ।। -ज्ञानसार, मौनाष्टक २ व्यवहारोऽपि गुण कृद् भावोपष्टम्भतो भवेत् । सर्वथा भावही नस्तु स ज्ञयो भववृद्धिकृत् ॥ -वैराग्यकल्पलता स्तवक ६/१०१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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