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________________ आत्मार्थी को दृष्टि : परमात्मभाव की सृष्टि | १७६ एकान्तनिश्चय या एकान्तव्यवहार की बात मोक्षप्राप्ति में बाधक असत्प्रवृत्ति से निवृत्त होने के लक्ष्य से रहित एकमात्र निजशुद्धस्वरूप की कोरी बातें मुक्ति या परमात्मभाव का प्राप्त नहीं करा सकती। इसी प्रकार परमात्मस्वरूप या निजशुद्ध आत्मस्वरूप के लक्ष्य के बिना केवल प्रतिक्रमण, प्रतिलेखनादि शुभ क्रियाएँ भी मोक्ष या परमात्मभाव की साधना में निष्फल रहती हैं। वस्तुतः समग्न व्यवहार का लक्ष्य निर्विकल्प शुद्ध उपयोग की ओर गति-प्रगति करना है। इस लक्ष्य के बिना केवल व्यवहार से प्रवृत्ति पर जोर देने से वह जोर अविवेकयुक्त प्रवृत्ति को बहुलता या इससे प्राप्त होने वाले भौतिक लाभ, इहलौकिक कीर्ति या पारलौकिक समृद्धि आदि पर केन्द्रित हो जाता है। फिर इस लक्ष्यहीन प्रवृत्ति को दृष्टि मूक्तिसाधनारूप गुणवत्ता की ओर तथा जड़-जगत् के प्रति विरक्ति, जोवजगत् के प्रति आत्मीयता एवं क्षणिक स्वपर्यायों के प्रति उदासीनता का विकास करने के मूल लक्ष्य के प्रति नहीं रहती। फलतः ऐसी प्रवृत्ति का बाह्य कलेवर धार्मिक होते हुए भी वस्तुतः वह लौकिक बन जाता है। अन्तःस्तल में भौतिक होती हुई भी वे प्रवृत्तियाँ आध्यात्मिक होने का आभास करातो हैं । मुग्ध आत्माएँ ऐसी प्रवृत्तियों से ठगा जातो हैं, वे धर्मसाधना की भ्रान्ति में रहती हैं। आत्मार्थी प्रवृत्ति और निवृत्ति के विषय में जागरूक रहता है। देहादि से पर अपने शुद्ध ज्ञायकस्वरूप को भावना हृदयंगम न हुई हो तो शुद्धधर्म-प्रवृत्ति में भी अहंता-ममता की प्रबलता को अवकाश मिल जाता है और अति श्रम से साध्य व्यवहार की प्रचुर प्रवृत्ति को भी वह विफल कर डालता है। निष्कर्ष यह है कि आत्मार्थी साधक अपने कर्मकृत व्यक्तित्व पर रही हुई नजर हटाकर आत्मा को शुद्धस्वरूप की ओर मोड़ता है, तभी वह आत्मा का आन्तरिक वैभव या परमात्मभाव का खजाना प्राप्त कर पाता है । अन्यथा. अपनी दृष्टि शुद्ध आत्मस्वरूप को ओर मोड़े बिना केवल क्रियाओं के गतानुगतिक प्रचलित घेरे में वूमने से जीवन में शान्ति, सन्तोष एवं आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता, न ही वह आन्तरिक आत्मवैभव या परमात्मभाव निधि को प्राप्त कर सकता है । ऐसी प्रवृत्ति बाहर से धार्मिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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