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१७८ ! अप्पा सो परमप्पा
है। और यह उद्देश्य तभी सफल हो सकता है, जब निश्चय और व्यवहार अर्थात्- ज्ञान और क्रिया दोनों का संयुक्त प्रयोग हो । ज्ञान को जीवन के ताने-बाने में बुन लेने की प्रक्रिया ही व्यवहार है । व्यवहार के साथ से रहित केवल शुष्कज्ञान प्रमाद और अभिमानादि कषाय को पैर पसारते देकर आत्मार्थी मुमुक्षु को साधनाशून्य बना देता है। ज्ञान के वल वाणी में हो नहीं, समग्र जीवन में अभिव्यक्त होना चाहिए। आत्मा के शुद्धस्वरूप के ज्ञान के साथ क्षमा, मृदूता, ऋजुता, नम्रता, निर्दम्भता, पवित्रता, सत्यता, संयम, अभय, अद्वष, अदैन्य, तप, त्याग, अकिंचनता, नि.स्पृहता, करुणा, मैत्रो, अहिंसा आदि आत्मगुण क्रियाएँ परछाईं की तरह आनी चाहिए, यही निश्चय-व्यवहार समन्वयी आत्मार्थी की पहचान है।
मोक्षमार्ग का साधनरूप व्यवहार परमात्मा के साथ आत्मा का सन्धान बढे, अभेदभक्ति हो. जगत के प्राणि समुह के प्रति आत्मतुल्य व्यवहार हो, भौतिक जड़ जगत् के प्रति विरक्तिभाव का धारण-पोषण हो, क्षणिक पर्यायों से पर अपने अविनाशी स्वरूप का जिससे अनुसन्धान हो, देहात्मबुद्धि मन्द हो, ऐसे क्रियाकाण्डों या बत्ति-प्रवत्तियों का आदर जिससे हो, तथा अपने शुद्ध स्वरूप को प्रकट करने के लक्ष्य को सिद्ध करने के लिए निर्धारित या सुविचारित विविध उपायों को यथाशक्ति जीवन में उतारने का प्रयत्न जिससे दृढ़ हो, ऐसी वृत्ति प्रवृत्ति, जीवन-व्यवहार, आचरण या क्रिया मोक्षमार्ग का व्यवहार है। इससे भिन्न केवल मत पंथनिर्दिष्ट क्रियाकलाप है।
गति और प्रगति के लिए दोनों अनिवार्य मार्ग पर गति करने के लिए दाहिने और बाँये दोनों पैरों का महत्व है, उसी प्रकार मोक्षमार्ग में गति-प्रगति करने के लिए निश्चय और व्यवहार दोनों का महत्व है। जिस प्रकार बांये और दांये दोनों परों में से किसी एक के प्रति पक्षपात रखे बिना एक बार दाहिने पैः को मार्ग पर भलीभाँति टिका कर बाँये पैर को ऊँचा करके आगे रखा जाता है, फिर पीछे का कदम रखने हेतु बाँये पैर को जमीन पर टिका कर दाहिने पैर को आगे ले जाना पड़ता है, इसी प्रकार मोक्ष या परमात्म भाव के प्रति प्रयाण में व्यवहार की गति को प्रगति में बदलने के लिए निश्चय का सहारा लिया जाता है।
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