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आत्मार्थी की दृष्टि : परमात्मभाव की सृष्टि | १७७
किसी एक को पकड़ने से गति होगी, प्रगति नहीं । तेली का बैल सारे दिन गति करता है, परन्तु पहुँचता कहीं नहीं, जहाँ का तहाँ ही रहता है, उसी घेरे में घूमता रहता है । किसी एक निश्चित दिशा में गति करने से हो मार्ग तय होता है, गति को निश्चित दिशा मिलती है, तब प्रगति होती है। निश्चय व्यवहार की गति को निश्चित दिशा दिखाता है । निश्चय का अँगुलिनिर्देश सदैव आत्मा के शुद्धस्वरूप की ओर रहता है । महासागर को पार करते हुए नाविक को अपनी गन्तव्य की दिशा निश्चित करने में दिशा दर्शकयन्त्र की सुई सहायक होती है, वैसे ही भवसागर को पार करने के लिए व्यवहार की नौका में बेठे हुए आत्मार्थी नाविक को निश्चय स्वरूप की दिशा प्रदर्शित करके उत्पथ की ओर मुड़ती नौका को बचा लेता है चप्पू (डाँड) मारने वाला चप्पू मारकर नौका को गति प्रदान करता है, परन्तु उसकी दिशा निश्चित करने का कार्य कर्णधार का है । निश्चय ऐसा ही कर्णधार है । निश्चय के द्वारा निर्दिष्ट दशा में स्वरूप की दिशा में व्यवहार की गति रहे तो आत्मार्थी साधक भवसागर को सही सलामत पार करके परमात्मपद - मुक्तिपद को प्राप्त कर सकता है ।
आत्मार्थी साधक निश्चय द्वारा अपने शुद्ध ज्ञायकस्वरूप की पहचान करता है । निश्चयनय द्वारा कर्तृत्व- भोक्तृत्व की भ्रान्ति दूर करके वह अपने ज्ञायक निर्विकल्प शुद्धस्वरूप को निश्चयपूर्वक जानता है तथा उसमें स्थिर होने के लक्ष्यपूर्वक व्यवहारमार्ग में प्रवृत्त होता है । 1
ऐसा निश्चय या ऐसा व्यवहार परमात्मप्राप्ति में साधक नहीं
निज के शुद्धज्ञायकस्वरूप के भान से रहित अथवा इस भान ज्ञान को जागृत रखने के लक्ष्य से निरपेक्ष व्यवहार तथा ज्ञायकभाव की केवल बातें करते रहकर वहाँ तक पहुँचाने वाले व्यवहार की अवगणना करने वाला निश्चय शुष्कज्ञान, इन दोनों में से एक भी मुक्ति - परमात्मप्राप्ति में साधक नहीं बन सकता ।
आत्मार्थी को समग्र साधना निश्चय व्यवहार समन्वय आत्मार्थी की समग्र साधना देह और मन से पर होने के लिए होती
१ कोई कहे मुक्ति छे वीणतां चींधरा, कोई कहे सहज जमत्तां घर दहीधरा । मूढ़ ए दोय तस भेद जाणे नहीं, ज्ञानयोगे क्रिया साधतां ते सही ॥ - उपाध्याय यशोविजयजी म. साढीसो गाथानु स्तवन ढाल १६ गा० २४
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