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________________ आत्मार्थी की दृष्टि : परमात्मभाव की सृष्टि | १७५ होता है । कदाचित् कोई सामायिक, या व्रत, नियम आदि समझ-बूझ पूर्वक विधिवत् न करता हो तो ये संवररूप न हों, तो भी जितने समय तक व्यक्ति सामायिक में रहता है, उतने समय तक पाप ( सावद्य) व्यापार से तो विरत हो गया न ? व्रत नियमों का पालन यथार्थरूप से न हो तो भी पापाश्रव तो रुक गया न ? आश्रव को त्याज्य समझकर क्या पापाश्रव को भी न रोका जाए ? किन्तु बहुधा ऐसे लोग निश्वयनय का अवलम्बन लेकर अपनी आत्मिक निर्मलता एवं आन्तरिक सूझ-बूझ से प्रगट होने वाले विवेक से रहित हो जाते हैं और अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों में रागद्व ेष से निवृत्त होने के बदले जाने-अनजाने अपनी सुख- शीलवृत्ति एवं प्रमाद का बचाव और पोषण करने लगते हैं । कई लोग एकान्त निश्चयवाद के चक्कर में पड़कर पहले के लिए हुए रात्रिभोजनत्याग, तथा कन्दमूलत्याग, अथवा अमुक वनस्पतियों के त्याग, नियम आदि को तिलांजलि देकर सद्व्यवहारमार्ग से स्वयं भ्रष्ट हो जाते हैं और दूसरों को भो भ्रष्ट करने को उतारू हो जाते हैं । निश्चय के लक्ष्यपूर्वक व्यवहार ही सद्व्यवहार है हाँ, यह निश्चित है कि यदि कोई व्यक्ति सामायिक या व्रत, प्रत्याख्यान, तप, संयम, नियम आदि अनुष्ठान बिना समझे, अथवा सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्ररूप मोक्षमार्ग का स्वरूप निश्चय व्यवहार दोनों दृष्टियों से बिना समझे, अविवेकपूर्वक करता है, उसी में सन्तोष मान लेता है, अथवा निश्चय के लक्ष्य बिना अविवेकपूर्वक की जाने वाली क्रियाओं का अहंकार करता है, प्रतिष्ठा, प्रशंसा या इहलौकिक, पारलौकिक फलाकांक्षा से युक्त होकर करता है तो वह व्यवहार सद्व्यवहार नहीं होगा, उससे निर्जरारूप फल नहीं मिलेगा । आत्मा कर्मों के भार से हल्का नहीं होगा | सामायिक करने वाले में समताभाव आना चाहिए। उसके जीवन व्यवहार में कषायों की मन्दता, प्राणिदया, अहिंसा, प्रामाणिकता आदि गुण आने चाहिए। वीतराग प्रभु की भक्ति करने वाले के जीवन में वीतरागता या राग-द्वेषरहितता का अंश तो आना ही चाहिए । निश्चय और व्यवहार दोनों का यथायोग्य उपयोग करो अतः निश्चय को लक्ष्य में रखकर सद्व्यवहार के साधनों का विवेकपूर्वक आचरण करना है । जो सद्व्यवहारयुक्त साधन आत्मा की शुद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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