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________________ ४ | अप्पा सो परमप्पा अपने ही सम्यक पुरुषार्थ के द्वारा कोई भी मानवात्मा परमात्मा बन सकता है। इसका रहस्य यह है कि महावीर ने परमात्मा की कृपा का अवलम्बन लेने की अपेक्षा स्वयं आत्मा पर परमात्मपद प्राप्त करने का दायित्व डाल दिया। इसका मतलब यह नहीं कि भ० महावीर स्वयं ही परमात्मा बन सकते हैं, अन्य कोई नहीं, अथवा भ० महावीर के जो भक्त-भक्ता होंगे, वे ही परमात्मा बन सकते हैं, अन्य व्यक्ति नहीं। जैन दर्शन ने भ० महावीर के दष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए कहा कि अमुक विशिष्ट धर्म, सम्प्रदाय, देश, वेश, भाषा, प्रान्त, रंग, लिंग या परम्परा वाला व्यक्ति ही सिद्ध (मुक्त परमात्मा) बन सकता है, ऐसी बात नहीं है। किसी भी देश, वेश, धर्म-सम्प्रदाय, जाति, कौम, रंग, लिंग, भाषा, प्रान्त या परम्परा आदि का कोई भी व्यक्ति, वह चाहे स्त्री हो, पुरुष हो, या नपुसक हो, तीर्थंकरों की मौजूदगी में हो या न हो, जैनसंघ (तीथ) में हो, चाहे जैनेतर संघ (तीर्थ) में हो. किसी ज्ञानी, धर्मगुरु या तीर्थंकर आदि विशिष्ट मार्गदर्शक द्वारा उपदिष्ट हो, अथवा अनुपदिष्ट (स्वयं-स्फुरणा से बोध प्राप्त) हो, गृहस्थ हो चाहे संन्यासी, ये सभी सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा बन सकते हैं, बशर्ते कि सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग की साधना द्वारा समस्त कर्मों का क्षय कर दें। समवायांगसूत्र में पन्द्रह प्रकार से मुक्त परमात्मा बनने की बात जैनदर्शन द्वारा मान्य 'अप्पा सो परमप्पा' सिद्धान्त का व्यावहारिक रूप से स्पष्ट निदर्शन है। इतना ही नहीं, जैनदर्शन यह भी नहीं कहता कि जैनसंघ द्वारा जो परमात्मपद को प्राप्त हुए हैं, वे परमात्मा ही उच्च या महान हैं, अन्य संघों द्वारा हुए परमात्मा नीचे या क्षद्र हैं। जो भी, जहाँ से भी, जिस देश-वेश, धर्म-कौम से मुक्त-परमात्मा हुए हैं, या होंगे, उन सबका दर्जा समान है, वे परम आत्मा सर्वकर्मविमुक्त अनन्तज्ञानादिचतुष्टय से सम्पन्न हैं, उनमें न कोई ऊँचा है, न कोई नीचा और न कोई महान् है, न कोई क्षुद्र। सभी एक समान हैं, सभी विश्ववन्द्य है, सभी पूज्य हैं । संसार के या संसारी जीवों के लिए वे सभी परमात्मा महान प्रेरक हैं, संदेशदाता हैं । उनकी प्रेरणा यह है कि 'हम भी एक दिन तुम्हारी तरह संसार के जन्म-मरण के चक्कर में, राग-द्वष, मोह, विषय-भोग, कषाय आदि विकारों के कुचक्र में फंसे हुए थे, किन्तु हमें अपनी आत्मशक्ति का भान हुआ, आत्मस्वरूप की प्रतीति एवं अनुभूति हुई और स्वयं में १ समवायांग सूत्र, १५वां समवाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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