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________________ अप्पा सो परमप्पा | ३ पूर्ण शुद्ध -बुद्ध-मुक्त परमात्मा बन जाता है । वही अपने पूर्ण ज्ञान, दर्शन, शक्ति और आनन्द का कर्ता है, स्वयं ही भोक्ता है । निरंजन, निराकार परमात्मा कर्मों से मुक्त होकर तथा संसार के जन्म-मरण के समस्त बन्धनों एवं दुःखों से रहित होकर पुनः सृष्टि के जीवों को बनाने के प्रपंच में क्यों पड़ेगा ? यदि मोक्षधाम में जाकर पुनः संसार में वह आएगा तो उस पर अनेक आक्षेप आएँगे । सर्वप्रथम आक्षेप तो यह आएगा कि जिसके कोई आकार या अंगोपांग ही नहीं है; वह अशरीरी परमात्मा बिना अंगों सृष्टि को बनाएगा कैसे ? यदि वह मुक्त होकर पुनः संसार के बन्धन में पड़ता है तो राग-द्व ेषी बनकर नाना दोषों से लिप्त हो जाएगा। फिर यह भी प्रश्न होगा कि उस तथाकथित ईश्वर को किसने बनाया ? क्योंकि ईश्वर संसार में सृष्टि का निर्माण करने आएगा तो उसे जन्म तो लेना ही होगा । कोई भी जीव, भले ही सिद्ध-मुक्त परमात्मा हो, प्रारम्भ से ही अजन्मा नहीं होता, वह अपनो मोक्षमार्ग की साधना के द्वारा ही जन्म-मरण से रहित हो सकता है । इसलिए जैनदर्शन ईश्वर परमात्मा को तो मानता है, परन्तु एक नहीं, अनेक मानता है, जगतरूप सृष्टि का नहीं, अपनी-अपनी सृष्टि का कर्ता-भोक्ता मानता है । यही कारण है कि जैनदर्शन ने स्वरूप की दृष्टि से कहा - 'एगे आया- - आत्मा एक है । तात्पर्य यह है कि जैसी सिद्ध-परमात्मा की आत्माएँ हैं, वैसी ही संसारी आत्माएँ हैं। सभी आत्माएँ मूल स्वरूप की दृष्टि से समान हैं । उनमें कोई भेद नहीं है । बृहद् आलोयणा में इसी तथ्य की ओर इंगित किया गया है 'सिद्धां जैसो जीव है, जीव सोई सिद्ध होय ।' जैनदर्शनमान्य आत्मा से परमात्मा बनने का रहस्य इसीलिए भगवान् महावीर ने परमात्मा को तो परमात्मस्वरूप के रूप में माना, किन्तु उस परमात्मा को सृष्टि के कर्ता हर्ता-धर्ता के रूप में स्वीकार नहीं किया। कुछ दार्शनिक भ्रान्तिवश यह कह देते हैं कि जैनदर्शन परमात्मा को नहीं मानता, वह अनीश्वरवादी है । भगवान् महावीर ने कहा- कोरी परमात्मा की कृपा से, पाप-माफी से अथवा परमात्मा पर अवलम्बित रहने से कोई परमात्मा नहीं बन सकता । अपनी ही आत्म-साधना के बलबूते पर, १ 'जारिसिया सिद्धप्पा भवमल्लिय जीवा तारिसा होंति ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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