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________________ २ | अप्पा सो परमप्पा (परमात्मा) को सृष्टिकर्ता-धर्ता एवं संहर्ता मानते हैं। जैनदर्शन परमात्मा को अवश्य मानता है, किन्तु वह उसे सष्टिकर्ता न मानकर शास्त्रीय प्रमाण, तत्वज्ञान, युक्ति और अनुभूति के आधार पर डंके की चोट कहता है-सामान्य आत्मा भी निरंजन, निराकार, शाश्वत, वीतराग, अनन्तज्ञान-दर्शन-शक्ति-सुखमय सिद्ध, बुद्ध एवं कर्मों से सर्वथा मुक्त परमात्मा बन सकता है । बन जाता ही नहीं, आत्मा निश्चय दृष्टि से परमात्मा जैनदर्शन का स्पष्ट उद्घोष है __ 'अप्पा सो परमप्पा' जो आत्मा है, वही परमात्मा है । जैनधर्म के भक्तिमान् श्रावक श्री विनयचन्दजी ने इक्कीसवें तीर्थंकर परमात्मा की स्तुति करते हुए स्पष्ट कहा है तू सो प्रभु, प्रभु सो तू है, द्वैत कल्पना मेटो। सत्-चित्-आनन्दरूप विनयचंद, परमातम-पद भेंटो रे ॥ वेदांतदर्शन के अद्वैतवाद के 'तत् त्वमसि' के समकक्ष ही यह सिद्धान्त है। जैनदर्शन निरंजन, निराकार, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा में मिल जाने, विलीन हो जाने या संयोग-सम्बन्ध से जुड़ जाने को इतना महत्व नहीं देता । वह कहता है, आत्मा स्वयं परमात्मा हो सकता है । वह सृष्टि के कर्ता-धर्ता-संहर्ता के रूप में एक ही ईश्वर (परमात्मा) को नहीं मान कर अनेक और यहां तक कि अनंत ईश्वर (परमात्मा) मानता है। अन्य धर्म और दर्शन, जहां यह कहते हैं, कि ईश्वर एक ही है, वही सृष्टि का कर्ता है, वही जीवों को कर्मफल भुगवाता है, उसकी स्तुति, प्रशंसा या भक्ति कर देने से वह जीवों के पाप का फल भी माफ कर देता है; वहां जैनदर्शन कहता है _ 'अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य ।' आत्मा स्वयं ही अपनी सृष्टि का-अपने सुख-दुःखों का कर्ता और स्वयं ही भोक्ता है। आत्मा से परमात्मा क्यों और कैसे ? । निष्कर्ष यह है कि व्यवहार दृष्टि से आत्मा स्वयं मोक्षमार्गरूप सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय की साधना में पुरुषार्थ करके निरंजन-निराकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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