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आत्मार्थी की दृष्टि : परमात्मभाव की सृष्टि | १७३
लेप नहीं लगता, उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । इस प्रकार जो जीव विभाव में, उलटे मार्ग में प्रवृत्त होने लगे, वह निश्चयनयाभासी व्यक्ति है । शास्त्र में कर्मबन्ध को रोकने के लिए कथित कर्मबन्ध को रोकने के उपाय रूप संवर का स्वीकार न करे, तथा व्रत, प्रत्याख्यान, त्याग, तप-नियम एवं संयम की आवश्यकता न समझे, वह निश्चय और व्यवहार दोनों को छोड़ बैठता है । उसकी स्थिति त्रिशंकु जैसी 'इनो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टः' सी हो जाती है । ऐसा एकान्तवादी जीव केवल शब्दों से निश्चयनय की बातें बघारता है, वह निश्चयनय का हार्द नहीं समझा । निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा का जो शुद्ध स्वरूप बताया है, उसे प्रगट करने के साधनरूप व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान आदि रूप व्यवहारचारित्र को वह त्याज्य समझता है । फलतः वह आत्मिक पुरुषार्थ से रहित होकर सर्वस्व खो देता है, और आत्मा को पतितदशा में ले जाता है। ऐसा व्यक्ति एकान्त पाप व्यापार में प्रवृत्त हो जाता है । '
आत्मशुद्धि के लिए साधनों को अपनाना आवश्यक
वास्तव में, आत्मार्थी यह विचारता है कि निश्चयदृष्टि से आत्मा शुद्ध, बुद्ध होने पर भी जहाँ तक जीव संसारी है, सिद्ध (मुक्त) नहीं हो जाता, वहाँ तक उसकी वर्तमान पर्याय अशुद्ध है, निश्चयदृष्टि से असंग होते हुए भी कर्म के संग से वह मलिन है, अल्पज्ञानी है । अतः उसे शुद्धबुद्ध करने के लिए अर्थात् - आत्मा के साथ संयोग सम्बन्ध से सम्बद्ध कर्म मलिनता को दूर करने के लिए साधन करना आवश्यक है । साधन का व्यवहार नहीं होगा तो आत्मा कभी शुद्ध नहीं हो सकेगा । वह साधन क्या है ? आत्मा के शुद्ध स्वरूप के लक्ष्य को दृष्टिगत रखकर किया जाने वाला बाह्य व्यवहार । यथा -- संयम पालन, व्रतों या महाव्रतों का पालन, रत्नत्रय की आराधना, क्षमा, दया, समता, सन्तोष, विनय आदि चारित्रिक
१ निश्चय दृष्टि हृदये धरी जी पाले जे व्यवहार ।
निश्चय नवि पामी शके जी, पुण्यरहित जे एहवा जी,
पुण्यवन्त ते पामशे जी, भवसमुद्रनो पार ।। ५६ ।। पाले नवि व्यवहार । तेहने कवण आधार ॥५८॥ - सवा सौ गाथानूं स्तवन मुग्ध पड़े भव कूप मां जी दरिया घाट ।। ६० ।।
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ढाल ५
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- उपाध्याय यशोविजय जी
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