SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७२ | अप्पा सो परमप्पा निश्चयनय । जो दृष्टि वस्तु के मूलभूत स्वरूप का वर्णन करती है, उसका नाम निश्चयनय की दृष्टि है और इसी द्रव्याथिकनय (द्रव्य दृष्टि) से द्रव्य के मूलभूत स्वरूप को जो (पर्यायाथिक) पर्यायदृष्टि से अर्थात समय-समय पर व्यवहार में प्रकट होती हुई विभिन्न दशाओं (पर्यायों) का जो वर्णन करता है, वह व्यवहारनय है जैसे-निश्चयनय कहता है-आत्मा शुद्ध, बुद्ध, अखण्ड, अजन्मा, अमर, त्रिकाल स्थायी अविनाशी द्रव्य है । वह एकमात्र शुद्ध चिदानन्द रूप द्रव्य है, वह देव, मानव, पशु या नारक नहीं है । परन्तु व्यवहारनय कहेगा- तुम मनुष्य हो । आत्मा की विभाव दशा की परिणति के कारण तुमने मनुष्य अवस्थारूप पर्याय धारण की है। इसी प्रकार देव, नारक, तिर्यञ्च आदि पर्याय भी आत्मा की व्यवहारदशा है। जाति, इन्द्रिय, आदि के माध्यम से आत्मा (जीव) की जो पहचान करायी जाती है, वह भी व्यवहारनय की अपेक्षा से। ध्येय की दृष्टि से आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन निश्चयनय करता है। इसी द्रव्याथिक-अभेद-निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा परमात्मभाव को प्राप्त कर सकता है। किन्तु पर्यायाथिक-भेद-व्यवहारनय की दृष्टि से आत्मा के वर्तमानकालीन भिन्न-भिन्न पर्यायों का चिन्तन आत्मार्थी मनुष्य करता है और वह व्यवहारनय को यथावसर छोड़ता हुआ निश्चयदृष्टि का अवलम्बन लेकर परम लक्ष्य की ओर गति-प्रगति करता है। वह न तो एकान्त निश्चयनय को पकड़ता है, और न ही एकान्त व्यवहारनय को पकड़कर बैठता है। आत्मार्थी दोनों का अनेकान्त-सापेक्ष दृष्टि से समन्वय करता है। जैसे-निश्चयनय की दृष्टि कहतो है-आत्मा निर्लेप है, किन्तु व्यवहारनय कहता है-आत्मा कर्म से लिप्त होने के कारण संसारी दशा में है। इन दोनों परस्परविरोधी दृष्टियों का सापेक्ष दृष्टि से आत्मार्थी समन्वय करता है। एकान्त निश्चयवादी को व्यवहार एवं साधन को आश्रव और त्याज्य समझने की भूल आत्मा को निश्चयदृष्टि से निर्लेप कहा गया है। इसे कर्म का लेप नहीं लगता। इस एकान्त निश्चयदृष्टि का अवलम्बन लेकर भ्रान्तिवश जो व्यक्ति यह समझता है कि मैं जो कुछ भी प्रवत्ति करूं, राग-द्वेष करू, पापाचरण करू, या अधमाधम आचरण करू, उससे आत्मा को तो कोई १ निच्छ्यमवलंबंता, निच्छयतो निच्छ्यं अयाणंता । नासंति चरण-करणं, बाहिरकरणाऽऽलसा केइ ॥ -ओघ नियुक्ति ७६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy