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________________ आत्मार्थी ही परमात्मार्थी | १६१ स्वरूप को समझने की उसके अन्तर् में इतनी तड़फन होती है कि कोई उसका अपमान, अनादर भी करता है, हँसी उड़ाता है, मखौल करता है, या उसे झूठ-मूठ बदनाम करता है, तब भी वह उस ओर ध्यान नहीं देता, उसे मनाने-रिझाने का प्रयत्न नहीं करता। वह यही कहता-सोचता है कि मुझे तो अपनी आत्मा को रिझाना है-प्रसन्न करना है-मनाना है, जगत को नहीं । आत्मा की सच्ची लगन के कारण वह जगत् से मिलने वाले सम्मानअपमान की, प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा की, निन्दा-प्रशंसा की परवाह नहीं करता। उसे तो आत्मा के शुद्ध स्वरूप एवं स्वभाव को समझकर अपनी आत्मा का ही हित साधना है, वही उसका लक्ष्य है। उसके मन में यह वृत्ति नहीं उठती कि 'मैं आत्मा के विषय में समझकर दूसरों से बढ़कर ज्ञानी या विद्वान् कहलाऊँ, प्रशंसा या प्रसिद्धि प्राप्त करू, अथवा जो नहीं समझना चाहते हैं, उन्हें समझाऊँ।" यह है-आत्मार्थी को आत्मथिता! आत्मार्थी : आत्मभ्रान्ति रोग को मिटाने के लिए तत्पर जिस प्रकार किसी दुःसाध्य रोग से पीड़ित मनुष्य को अनुभवी वैद्य मिलते ही वह हर्षित और उत्साहित हो जाता है तथा अत्यन्त थके हुए मनुष्य को विश्राम मिलते ही वह प्रसन्न हो जाता है, इसी प्रकार आत्मभ्रान्ति के रोग से पीड़ित आत्मार्थी जीव को भवव्याधि-निवारक वैद्य मिलते ही वह उत्साहित हो जाता है, भवभ्रमण करते-करते थके हुए आत्मार्थी जीव को आत्महितैषी सत्पुरुष की छाया में आत्मा को विश्राम मिलता है तो वह प्रफुल्लित हो उठता है। आत्मभ्रान्ति के रोग को मिटाने वाली आत्मस्वरूप की औषध कान में पड़ते ही उत्साहपूर्वक सेवन कर लेता है । हितैषी सद्गुरु वैद्य जिस प्रकार उसे आत्महितरूप भवभ्रमणनिवारक औषध सेवन करने को कहता है, उसी प्रकार वह सेवन करता है । अपना रोग शीघ्र ही मिटा लेता है । इसी प्रकार भवभ्रमण करके थके हुए जिज्ञासु आत्मार्थी को कोई सद्गुरु आत्मिक विश्राम का स्थान बता देता है, तो वह आत्मारूपो आराम (बाग) में विश्रान्ति लेकर आनन्द प्राप्त करता है। और जब आत्मार्थी आत्म-सुच का अर्थी बनकर किसी आत्मज्ञानी सत्पुरुष के पास जाता है और आत्म-सुख का मार्ग उसे मिल जाता है, तो उसे कितना आनन्द मिलता है ? आत्मिक सुख की बात उसे कितनी मधुर लगती है ? उस समय आत्मा का शुद्ध स्वरूप तथा स्व-भाव समझकर अपना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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