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________________ १६० | अप्पा सो परमप्पा है।" योगीश्वर आनन्दघनजी के शब्दों में देखिये आत्मार्थी के मनोरथ का शब्द चित्र कबहीक काजी, कबहीक पाजी, कबहीक हुआ अपभ्राजी। कबहीक जग में कीर्ति गाजी सब पुद्गल की बाजो ॥ आप स्वभाव में रे, अवध सदा मगन तु रहना" ||आप""। अभिप्राय यह है कि आत्मार्थी व्यक्ति की एकमात्र लगन, एक ही भूख है-आत्मार्थ पाने की; आत्मार्थ साधने की । वह भवभ्रमण का महादुःख मिटाकर एकमात्र आत्मिक सुख प्राप्त करना चाहता है । आत्मार्थो : आत्मिक सुख का याचक जिस प्रकार कोई क्षुधातुर मनुष्य जो अनेक दिनों का भूखा हो, वह अपनी क्षुधा मिटाने के लिए म न-अपमान की परवाह न करके तृप्त मनुष्य के समक्ष याचक बनकर अपने लिए भोजन मांगता है । वह दूसरों को देने, बाँटने और प्रशंसा प्राप्त करने के लिए भोजन नहीं मांगता, अपितु अपनी भूख का दुःख शान्त हो, ऐसा भोजन चाहता है । ऐसी स्थिति में उस क्षुधातुर को भोजन कितना मधुर लगता है ? सूखी रोटी भी मिले तो वह भी उसे मीठी लगती है, और वह उससे सहर्ष अपनी क्षुधा शान्त करता है। इसी प्रकार जिसे आत्मार्थ को, आत्मा के शुद्ध स्वभाव को जानने और पाने की भूख लगी है, वह अपनी आत्मिक क्षुधा को तृप्त करने के लिए वैसे निर्ग्रन्थ महामनीषी महापुरुषों के समक्ष याचक बनकर विनयपूर्वक आत्मार्थ को तथा आत्मिक सुख के मार्ग को समझाने एवं प्राप्त कराने की माँग करता है। वह आत्मज्ञानी सत्पुरुषों के समक्ष विनयपूर्वक याचना करता है - "कृपालु धर्मदेवो! मुझे भव-भ्रमणदुःख से छूटने और आत्मिक सुख पाने का मार्ग बत इए। अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरी आत्मा ने कहीं भी सच्चा सुख प्राप्त नहीं किया; एकान्त दुःख ही पाया । अब मैं ऐसा ही उपाय जानना-पाना चाहता हूँ, जिससे इन दुःखों से छूटकर मेरी आत्मा आत्मिक सुख प्राप्त कर सके।" आत्मार्थी आत्मा को ही रिझाता है, जगत को नहीं __ आत्मार्थी को जगत् की अपेक्षा, आत्मा ही प्रियतम लगता है। 'जगत् इष्ट नहिं आत्मथी', यही उसका स्वर्णसूत्र रहता है। शुद्ध आत्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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