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________________ १६२ | अप्पा सो परमप्पा दुःख मिटाने का ही आत्मार्थी का एकमात्र लक्ष्य रहता है । वह किसी अन्य सांसारिक लक्ष्य की ओर ध्यान नहीं देता। आत्मार्थी आत्मार्थ को क्षुधा तृप्त करता है उस समय आत्मार्थी आत्मा का वास्तविक अर्थी बनकर श्रवणमनन करता है । श्रवण करते हो आत्मा को बात का उसके अन्तर् में परिणमन हो जाता है । जैसे-कड़ाके की भूख लगी हो, तब क्षुधातूर के पेट में भोजन पड़ते ही उसका परिणमन हो जाता है, वैसे ही जिसे चैतन्यमूर्ति शूद्ध आत्मा की वास्तविक भूख लगी है, उसके कान में आत्मलक्ष्यी वचना. मृत पड़ते ही वे आत्मा में परिणत हो जाते हैं । आत्मार्थो : आत्मशान्ति की प्यास मिटाता है जैसे किसी तृषातुर को शोतल जल मिलते ही वह रुचिपूर्वक पीता है, वैसे ही आत्मा के अर्थी को चैतन्य के शुद्ध-शांत आत्मिक स्वरूप का रस मिलते ही वह अत्यन्त रुचिपूर्वक पीता है और अन्तर् में परिणत करता है। कोई व्यक्ति रेगिस्तान में भीष्म ग्रीष्म-ऋतु में तपतपाती दुपहरी में आ पहुँचा हो और प्यास के मारे उसके कण्ठ सूख रहे हों, प्राण कण्ठगत हो गए हों, एकमात्र पानी-पानी को पुकार करता हो, ऐसे समय में यदि उसे कहीं से भी शीतल-मधुर पानी मिल जाए तो वह कितनी चाह से पीता है ? इसी प्रकार विषय-कषायादि विकार की आकूलतारूपी भयंकर धूप से भवारण्य में घूमता हआ जीव भी तप्त हो रहा है। ऐसे में आत्मार्थ जीव को आत्मिक शान्ति को तृषा लगी है-~-आत्मार्थ पाने की लगनरूप प्यास लगी है। वह आत्मशान्ति की रट लगा रहा है। ऐसे व्यक्ति के आत्मज्ञानी सन्तों के शान्तरसपूर्ण मधुर शीतल वचन-जल का पान मिलते ही अन्तर् में परिणत हो जाता है । कोरे घड़े पर ज्योंही पानी की बूं पड़ती है त्योंही वह उसे चुस लेता है,वैसे ही आत्मार्थी जीव आत्मा के हित की एक बात कान में पड़ते ही उसे चूस लेता है-अन्तर् में परिणमन क लेता है। आत्मार्थी : संसार-समुद्र से पार होने का अभिलाषी जिस समय कोई व्यक्ति समुद्र में डूब रहा हो, तब उसका एकमाः यही लक्ष्य रहता है कि मैं समुद्र में डूबने से कैसे बचूं ? इसी प्रकार संसा समुद्र में गोते खा-खाकर थके हुए या डूबते हुए आत्मार्थी व्यक्ति का एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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