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आत्मार्थी ही परमात्मार्थी | १५५
आचरणीय एवं निर्दोष हो, उसी में साधक प्रवृत्त हो। इसके विपरीत श्रमण-आवश्यक निर्दिष्ट1--उत्सूत्र उन्मार्गी, अकल्प्य, अकरणीय, दुर्ध्यानयुक्त, दुश्चिन्तायुक्त, अनाचरणीय, अनिच्छनीय प्रवृत्ति हो, उससे निवृत्त हो। इसे ही अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवत्ति रूप व्यवहार चारित्र कहा गया है । निश्चयदृष्टि से तो चारित्र आत्मा के निजगुणों में स्थिरतारूप या स्वरूपरमण रूप है । इसीलिए आत्मार्थी जन संसारवर्द्धक प्रवृत्तियों से उदासीन, विरत एवं निवृत्त रहता है और संसार-क्षयकारी या संसार ह्रासकारी प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होता है ।
आत्मार्थी द्वारा साक्षीभाव की साधना जब अपने शरीर, मन, बुद्धि आदि में कोई परिवर्तन होता है, तब आत्मार्थी साधक एक तटस्थ प्रेक्षक की तरह दूर से ही उसे साक्षीभावपूर्वक देखता रहता है। आत्मार्थीजन अपनी आत्मा का शरीर, मन, इन्द्रिय, बुद्धि आदि पर्यायों के साथ जितनी मात्रा में तादात्म्य का अनुभव नहीं करता है। उन्हें अपने ज्ञान के विषय -- ज्ञेयरूप में ही देखता है, उतनी ही मात्रा में वह यहीं मुक्ति का-परमात्मभाव का आस्वाद पा जाता है। परन्तु सामान्य व्यक्ति केवल साक्षी नहीं रह सकता। अवचेतन मन में संचित जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों के अनुसार बाह्य जगत् में घटित होने वाली घटनाओं के प्रति कम्प्युटर (गणक यन्त्र) की तरह वह अपनी प्रतिक्रिया दर्शाता रहता है। महान विचारक श्री जे. कृष्णमूर्ति सभी जागृत साधकों से अनुरोध करते थे-“अगर इसी जीवन में मुक्ति का आस्वाद प्राप्त करना हो तो अवचेतन मन में निहित भूतकालिक स्मृतियों के आधार से यांत्रिक रूप से उठती प्रतिक्रियाओं के वशवर्ती मत बनो। जीवन में
१ ""उस्सुत्तो उम्मगो अकप्पो अकरणिज्जो, दुज्झाओ, दुचिंतिओ, अणायारो अणिच्छियवो."
-आवश्यक सूत्र, श्रमणसूत्रपाठ २ (क) असुहादो विणि वित्ति, सुहे पवित्ति य जाण चारित्त ।
-द्रव्य संग्रह ४५: (ख) निवृत्ति ने प्रवृत्तिभेदे चारित्र छे व्यवहारेजी । निजगुण स्थिरता चरण ते प्रणमो निश्चय शुद्ध प्रकार ॥
- पद्मविजयजी म. कृत सिद्धचक्रस्तवन &
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