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________________ १५६ ! अप्पा सो परमप्पा होने वाले संवेदनों के प्रति स्वीकार या अस्वीकार भाव लाये बिना सिर्फ वर्तमान क्षण के प्रति सजग रहो । अपनी दृष्टि-एफर्टलेस, चोइसलेस, एवेयरनेस अर्थात्-किसी भी प्रयास या पसन्दगी (रुचि) से रहित वे वल जागृत (प्रबुद्ध) दृष्टि-बनाओ। कहने को तो, प्रथम दृष्टि में यह मार्ग अत्यन्त सरल, सुखद और प्रेरक लगता है, किन्तु इसका रहस्य परिपक्व आत्मार्थी साधक ही प्राप्त कर पाते हैं । भूतकाल के समस्त संचित संस्कारों से तथा भावी आकांक्षाओं और लालसाओं से मुक्त हुए बिना वर्तमान क्षण में केवल द्रष्टा बनकर रहना सामान्य साधक के लिए आसान नहीं है। भूतकाल को स्मृतियाँ, संस्कार और भविष्य की संजोयी हुई कामनाएँ, आकांक्षाएँ, सामान्य मानव को वर्तमान क्षण के प्रति सजग रहने नहीं देती। अवचेतन मन में अनेक संस्कार अनजाने में प्रतिपल-प्रतिक्षण पड़ते रहते हैं तथा उन संस्कारों के अनुरूप उसके विचार और वर्तन किस प्रकार मोड़ ले रहे हैं, इसका जरा भी पता सामान्य साधक को नहीं होता। एतदर्थ केवल जागृत मन को ही नहीं, अवचेतन मन को भी विशुद्ध किए बिना वर्तमान क्षण के प्रति रागद्वष-रहित केवल ज्ञाता-द्रष्टाभाव आएगा कैसे ? आत्मतृप्त, आत्मार्थी : तटस्थ प्रेक्षक बाह्य जगत् में 'कुछ होना है', 'कुछ पाना है', ऐसी कामना-आकांक्षाओं से मुक्त रहकर वर्तमान क्षणों में किसी प्रकार की आतुरता, आकुलता या आसक्ति के बिना तटस्थ निरीक्षक-प्रेक्षक रहना-ज्ञाता-द्रष्टाभाव में रहना है। यही आत्मतृप्ति का राजमार्ग है। सामान्य मानव क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों के वशवर्ती न होना चाहता हुआ भी किसी भी घटना, व्यक्ति, आकस्मिक परिस्थिति, या इष्टवियोग व अनिष्टसंयोग के प्रति पूर्वसंस्कारवश अवश होकर अपनी प्रतिक्रिया प्रदर्शित करता रहता है। परन्तु निष्ठावान् आत्मार्थी साधक अन्तर्मन में क्रोधादि विकार उत्पन्न होने के क्षण में ही शरीर में अनुभव होने वाले संवेदनों से सावधान-जागृत होकर उस विकार के आक्रमण को वहीं रोक देता है, वह उसके प्रवाह में नहीं बहता । मन में उठने वाला प्रत्येक विकार शरीर में कुछ न कुछ संवेदन जगाता ही है। किन्तु आत्मार्थी साधक के चित्त में उन संवेदनों को सूक्ष्म रूप से तटस्थ होकर देखने-अनुभव करने की क्षमता प्राप्त हो जाती है। साथ ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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