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१५४ | अप्पा सो परमप्पा
जहाँ जीवन है, वहाँ जीवन सम्बन्धी सभी क्रियाएँ रहेंगी । शरीर को सदा के लिए निश्चेष्ट बनाकर रखा नहीं जा सकता, न ही मन को गड़ी बाँधकर एकदम निर्विचार करके रखा जा सकता है, इन्द्रियों को भी अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त होने से रोका नहीं जा सकता । परन्तु आत्मार्थी पुरुष शरीर, मन, वाणी आदि से होने वाली प्रत्येक प्रवृत्ति में शुभ - अशुभ का विवेक करेगा । आत्मा के हित-अहित कर्तव्य-अकर्तव्य, करणीय-अकरणीय, आचरणीय - अनावरणीय, श्रेय प्रेय, अनिवार्य - अननिवार्य का विवेक करेगा । फिर अगर वह प्रवृत्ति अनिवार्य हो तो वह उसे भी यत्नपूर्वक सावधानी और अप्रमत्ततापूर्वक करेगा, जिससे किसी भी जीव को हानि, क्षति, अशान्ति, आशातना, पीड़ा न हो। इसी को एक शब्द में विराधना कहा गया है । संक्षेप में, आत्मार्थी जीव चलना, खड़ा होना, बैठना, सोना, खाना-पीना या बोलना प्रभृति प्रत्येक जीवनसम्बन्धी अनिवार्य क्रिया यत्ना से करता है तो पापकर्म का बंध नहीं होता ।
आत्मार्थी : प्रवृत्ति-निवृत्ति का विवेककर्त्ता
इसके अतिरिक्त आत्मार्थी का जीवन प्रवृत्ति निवृत्ति के विषय में भी विवेकमय होता है । वह प्रत्येक प्रवृत्ति या निवृत्ति को तटस्थ ज्ञाताद्रष्टा बनकर करता है । कहाँ प्रवृत्ति की जाए, कहाँ निवृत्ति ? इस विषय में आत्मार्थी पूरा सावधान व अप्रमत्त होता है । उत्तराध्ययन सूत्र में आत्मार्थो साधक के लिए प्रवृत्ति-निवृत्ति का विवेक इस प्रकार बताया
एगओ विरइं कुज्जा, एगओ य पवत्तणं । असंजमे निर्यात च; संजमे य पवत्तणं ॥
आत्मार्थी निर्ग्रन्थ साधक एकान्त प्रवृत्ति या एकान्त निवृत्ति को न अपनाये । वह एक ओर विरति ( निवृत्ति) करे, तो दूसरी ओर प्रवृत्ति करे । जहाँ असंयम होता हो, जिस आचरण या प्रवृत्ति से आत्मा का अहित होता हो, जो अशुभ और अनिष्टकारक हो, उस प्रवृत्ति से साधक विरत हो; निवृत्त हो और जो प्रवृत्ति संयमवर्द्धक हो, जिससे संयम में कोई बाधा या हानि न पहुँचती हो, जो आत्मा के लिए हितकर, शुभ,
१ उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३१, गा. २
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