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आत्मार्थी ही परमात्मार्थी | १५३ उसका अनुभव किया। आत्मानुभव के पश्चात् आत्मा में स्थिरता आई, फिर उसमें निमग्न हो गया, वही परमविवेकी आत्मार्थी परमहंस कहलाता है। फिर वह चाहे जिस जाति, पंथ, धर्म-सम्प्रदाय, देश, वेश, भाषा आदि का अवलम्बन लेकर चलता हो, परन्तु शरीर और आत्मा की पृथकता का अनुभव करके आत्मा में ही रम जाता है, वही परमहंस है।
आत्मार्थी की क्रियाएँ भी विवेकमय ऐसा आत्मार्थी प्रत्येक क्रिया को विवेकपूर्वक करता है। वहाँ भी वह 'ज्यां-ज्यां जे जे योग्य छ, त्यां समजवु तेह' इस सूत्र को आत्मार्थीजन की परिभाषा के अनुसार, प्रत्येक क्रिया के साथ जोड़ता है। जैसे-चलना है, तो वह पहले विवेक करेगा-क्यों चलना है ? कहाँ चलना है ? कितना चलना है ? किस प्रकार चलना है ? क्या वहाँ चलना अनिवार्य है ? चलते समय समिति-गुप्ति का ध्यान रखना है ? जिससे चलने की क्रिया के साथ हिंसा, असत्य, अब्रह्मचर्य आदि पापास्रव न आजाएँ। जिस प्रकार 'चलना' क्रिया में वह इतना विवेक करता है। उसी प्रकार खड़े होने, बैठने, सोनेजागने, खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, बोलने-न बोलने इत्यादि प्रत्येक क्रिया साथ 'ज्यां-ज्यां जे जे योग्य छ' इत्यादि सूत्र के अनुसार विवेक करता है। इसी विवेक को शास्त्रीय परिभाषा में जयणा (यत्ना), यत्नाचार या उपयोग कहा गया है। दशवैकालिक सूत्र में आत्मार्थी साधक अपने गुरु से प्रश्न करता है
कहं चरे, कहं चिट्ठे, कहमासे कहं सए ?
कहं भुजंतो भासंतो पावकम्म न बंधइ ?1 इसका भावार्थ यह है कि शिष्य के मन में शंका होती है, चलनाबैठना आदि प्रत्येक क्रिया करते समय किसी न किसी जीव की विराधना हो सकती है, विराधना से तो पापकर्म का बन्ध होगा फिर कैसे चला, बैठा, खड़ा हुआ, सोया, खाया-पीया अथवा बोला जाए, जिससे पापकर्म का बन्धन हो। इस प्रश्न के उत्तर में गुरुदेव कहते हैं
जयं चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए। जयं भ जंतो भासंतो पावकम्मं न बंधई॥2
१ दशवकालिक सूत्र अ० ४ गा० ७ २ दशवकालिक सूत्र अ. ४ गा. ८
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