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________________ १५२ | अप्पा सो परमप्पा जहाँ से भी, जिस किसी निर्ग्रन्थ, निष्पक्ष, निःस्पृह, त्यागी, आत्मज्ञानी, आत्मानुभवी गुरु या महापुरुष से शुद्ध आत्मा की जिज्ञासा शान्त एवं समाहित हो, वहीं वह विनयपूर्वक समर्पित हो जाता है, उन्हों की चरण-शरण ग्रहण करता है, उन्हीं के सम्मुख आत्माथिता का याचक बन कर जाता है, उन्हीं की सेवा-शुश्रूषा में सेवक बनकर तत्पर रहता है। आत्मार्थी : परमविवेकी परमहंस हंस के लिए कहा जाता है कि वह क्षीर-नीर विवेक कर लेता है। राजहंस के सामने पानी मिला हआ दूध रखा जाए तो उसकी चोंच में ऐसा गुणं है कि वह दोनों को पृथक-पृथक कर देता है और दूध ग्रहग कर लेता है और पानी छोड़ देता है। इसी प्रकार आत्मार्थीजन हित-अहित, गुण-अवगुण, श्रेय-प्रेय आदि द्वन्द्वों में उपादेय और हेय का विवेक (पृथककरण) करके उपादेय को अपना लेता है और हेय को छोड़ देता है। भारत में कई महापुरुषों को 'परमहंस' कहा जाता है। बंगाल में हुए रामकृष्ण परमहंस के नाम से प्रसिद्ध हैं। हंस तो दूध और पानी को पृथक करने वाला क्षीर-नीर-विवेकी होता है। परन्तु परमहंस तो कुछ विशिष्ट रूप से पृथक्करण करने वाला परम विवेकी होता है। आत्मार्थी परमहंस की तरह स्व और पर का परम विवेक करता है । कर्मरूपी अनिच्छनीय पुद्गल या राग-द्वेष, मोह आदि विभावरूप विकार पंचेन्द्रिय विषयों के प्रति आसक्ति, आत्मबाह्य सजीव-निर्जीव सभी पदार्थ परभाव हैं, ये आत्मा के साथ मिलकर संसार-परिभ्रमण कराते हैं, अतः आत्मार्थी परम हंस इन्हें जलरूप निस्सार समझकर तटस्थ भाव से छोड़ता है, अथवा इन्हें त्याज्य समझकर इनके प्रति उदासीन भाव रखता है और दूध रूप परम तेजस्वी ज्ञानानन्दमय शक्तिमान आत्मा को आदरभाव से ग्रहण करता है अर्थात उसी में रमण करता है ।1 अनादिकाल से एक क्षेत्र का अवगाहन करके रहे हुए और एक रूप प्रतिभासित होने वाले आत्मा और शरीर को क्षीर नीर की तरह भिन्न-भिन्न कर लेता है। जिसने इन दोनों की अथवा स्व-पर की भिन्नता को जाना, दृढ़ प्रतीति की, अकेले आत्मा को अपनाकर ३. खीर नीर परे पुद्गल मिश्रित पण एहथी छे अलगो रे । अनुभव हंस चंचु जो लागे, तो नवि दीसे वलगो रे ।। सम्यक्त्व के ६७ बोल गा० १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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