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________________ आत्मार्थी ही परमात्मार्थी | १५१ निर्णय नहीं करता। निश्चय करने के समय वह विकार की ओर नहीं झुकता, शुद्ध चैतन्यस्वरूप स्वभाव की ओर ही झुकता है । छह द्रव्यों और नौ तत्त्वों का भगवकथित स्वरूप जानकर वह अपने ज्ञानस्वरूप शुद्ध आत्मा का निश्चय करता है। निजतत्त्व के निर्णय के बिना परतत्त्र का यथार्थ ज्ञान कदापि नहीं होता। इसलिए आत्मार्थी स्व-पर का विवेक करके स्वभाव में एकाग्र हो जाता है। ___ आत्मार्थी का सही अर्थ और फलितार्थ प्रवचनसार में बताया गया है कि जो सर्वज्ञ आप्त पुरुषों के प्रवचनों को अर्थतः जानता है, वह अर्थी है, दूसरे शब्दों में कहें तो आत्मार्थी है। इसका तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञप्रज्ञप्त शास्त्रों के अर्थ, रहस्य, उद्देश्य और प्रयोजन को जो भलीभाँति जानता है। उनमें बताये गये षटद्रव्यों, नौ तत्वों, तथा उन में भी आत्मद्रव्य (जीवतत्त्व) को प्रधान मान कर शेष तत्त्वों तथा द्रव्यों का यथायोग्य उपयोग करता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र (वैदिक दृष्टि से भक्तिमार्ग, ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग) तीनों का यथायोग्य आचरण करता है । अपनी शक्तियों का व्यर्थ अपव्यय न करके आत्मा के विकास, उसकी शुद्धि तथा शुद्ध स्व-भाव रमण करने में लगता है, आत्मा का अर्थी बनकर प्रत्येक वृत्ति-प्रवृत्ति-निवृत्ति और निर्वृत्ति (निर्वाण एवं शान्ति) का उचित उपयोग करता है । वही आत्मार्थी है, वही परमात्मार्थी है। आत्मार्थी की जिज्ञासा और तत्परता उसका मुख आत्मा से परमात्मा की ओर होता है। वह आत्मा का हित, कल्याण, मंगल का ही अर्थी (गर्जमंद) होता है । आत्मा का हित, कल्याण एवं मंगल किस प्रकार से हो? ताकि वह परमात्मा बन सके, यही उसकी जिज्ञासा, तमन्ना, मंत्रणा, वाचना, विचारणा, भावना और साधना होती है। वह अन्तःकरण से, आत्मा के कण-कण से, आत्महित के लिए पुरुषार्थ करता है । आत्मा के परमहित, परमार्थ के लिए वह जीता है, उसी के लिए वह बोलता, चलता, खाता-पीता, सोता-जागता और सोचताविचारता है। १ शुद्धात्मद्रव्यमेवाहं शुद्धज्ञानं गुणो मम । नान्योऽहं, न ममाऽन्ये, चेत्यदो मोहास्त्रमुल्वणम् ॥ २ देखिये-प्रवचनसार में आत्मार्थी का निर्वचन-अर्थतः अर्थी =आत्मार्थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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