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________________ परमात्मा बनने की योग्यता किसमें ? ! १४५ को सच्चिदानन्द-आत्मा की सेवा में लगाना है। आत्मविज्ञान से रहित व्यक्ति लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा आदि द्वन्द्वों में राग-द्वेष-मोह आदि करके संक्लेश पाता रहता है, किन्तु इन द्वन्द्वों के संयोगों में मैं समता, सहिष्णुता और सन्तोष का आनन्द प्राप्त करूंगा, जो अपने आत्मस्वरूप में रमण करने से प्राप्त होता है। श्रमणों में भी अन्तरात्मा और बहिरात्मा की कसौटी बताते हुए नियमसार' में कहा गया है जो धम्म सुक्क झाणम्मि परिणतो सो वि अन्तरंगप्पा । (सु) झाणविहीणो समणो बहिरप्पा इदि विजाणाहि ।।१५१॥ जो श्रमण धर्मध्यान और शुक्लध्यान से परिणत है, वह अन्तरात्मा है, और जो श्रमण उक्त सुध्यानों से रहित है, उसे बहिरात्मा जानो। अज्ञानी प्राणी की अन्तज्योति अवरुद्ध हो जाने से वह आत्मा से भिन्न पदार्थों को मनोज्ञ-अमनोज्ञ मान कर तुष्ट-रुष्ट होता रहता है, परन्तु मुझे तो अपनी आत्मा में ही सन्तुष्ट रहना चाहिए। भगवद्गीता में भी स्पष्ट कहा है यस्त्वात्मरतिरेव आत्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥1 जिस मनुष्य की आत्मा में प्रीति है, और आत्मा में ही जो मनुष्य तृप्त रहता है, तथा जो आत्मा में ही सन्तुष्ट रहता है, ऐसे तत्त्वज्ञानी पुरुष को अन्य क्रियाएँ करनी नहीं होती। ऐसे आत्मवान् पुरूष को अपने स्वरूप-रमण में ही सदैव तृप्ति, सन्तुष्टि और आनन्दानुभूति होती है । जो आत्मा को जानता-मानता नहीं, वह पर्वत, ग्राम, नगर, उपाश्रय, आश्रम आदि को ही अपना निवास स्थान मानता है, परन्तु अन्तरात्मा मानव सभी अवस्थाओं में अपनी आत्मा को ही अपना आवास-स्थान मानता है। अन्तरात्मा शरीरादि को अपने न मानकर अपनी आत्मा को ही अपना आत्मोय बन्धु, मित्र या शत्रु मानता है। इस दृष्टि से अपनी आत्मा ही अपना संसार या मोक्ष रचती है। वह शरीर को आत्मा से पथक समझने के कारण अन्तरात्मा मृत्यु आने पर बिना किसी हिचकिचाहट के १ भगवद्गीता अ. ३, श्लो. १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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