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________________ १४४ | अप्पा सो परमप्पा ख्यान, स्तवन आदि बाह्य जल्प (वचन विकल्प) में तथा अशन, शयन, गमन आदि की मूर्छारूप अन्तरंग जल्प में प्रवृत्त रहता है। वह बहिरात्मा है । और जो सब प्रकार से जल्पों से निवृत्त होकर अपने ज्ञान-दर्शनस्वभाव में स्थित है, वह अन्तरात्मा है ।। ___ अन्तरात्मा यों चिन्तन करता है कि मैं आत्मभावों से पृथक होकर इन्द्रियों के विषयों में मग्न हुआ। अहंभाव के कारण आत्मस्वरूप को यथार्थरूप से जाना-समझा नहीं। मैं जगत् में जो-जो चित्र विचित्र रूप देख रहा हूँ, वह तो पराया है, आत्मा का असली रूप तो ज्ञानमय है, जो इन्द्रियों से अगोचर है, इन बाह्य रूपों से भिन्न है। संसार में सुनाई देने वाले विविध शब्द भी (चाहे वे निन्दा के हों या प्रशंसा के, अथवा मोहक व कर्णप्रिय हों, अथवा कर्कश तथा कर्णकटु हों) पराये हैं, आत्मा तो इन शब्दों से रहित है। इसी प्रकार रस, गन्ध और स्पर्श भी सब पराये हैं, इनके प्रति राग-द्वेष, मोह या घृणा करना आत्मा का स्वभाव नहीं है। ये सब आत्मा के नहीं हैं। शरीर आदि से पहले मैंने अनेक क्रियाएँ की, जिन्हें भ्रमवश मैंने आत्मा की क्रियाएँ मानली थीं। परन्तु ये मन-वचन-काया की क्रियाएँ पराई हैं, आत्मा की नहीं। आत्मा इनको अपनी मानता है तो कर्मबन्ध होता है। ज्ञान से मुझे आत्मस्वरूपरमण की ही एकमात्र साधना करनी है। भेदविज्ञान होने से अब मुझे तलवार और म्यान की तरह आत्मा और शरीर की पथकता साफ-साफ नजर आ रही है। आत्मतत्व की दृष्टि, मति-गति होने के कारण अब मैं शारीरिक दृष्टि से किसी के साथ भेदभाव नहीं करता, आत्मिक दृष्टि से ही सबका मूल्यांकन करता हूँ। ___ मैंने अभी तक आत्मा-अनात्मा का, स्वभाव-परभाव का भेद नहीं समझा था, इसी कारण दुःख पाता रहा । अज्ञानी पुरुष विषयों को अपने मानकर उनके प्रति प्रीति, आसक्ति करता है, किन्तु मेरे लिए विषय-प्रीति आपत्ति की जननी है । अज्ञानी व्यक्ति ही मोहान्ध होकर नश्वर काया पर मुग्ध-आसक्त होकर उसे सुन्दर, सूरूप, बलिष्ठ, दीर्घायु बनाने का प्रयत्न करते हैं; मुझे अपनी काया की आसक्ति छोड़कर काया और इससे सम्बद्ध मन, वचन, बुद्धि, इन्द्रिय, अंगोपांग आदि की शक्तियों और प्राणों १ अंतर-बाहिर जप्पे जो वट्टइ, सो हवेइ बहिरप्पा। जप्पेसु जो ण वट्टइ, सो उच्चइ अंतरंगप्पा ॥-नियमसार १५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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