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१४६ | अप्पा सो परमप्पा समाधिपूर्वक शरीर छोड़ देता है। निरन्तर भेदविज्ञान के अभ्यास से अन्तरात्मा मानव आत्मनिष्ठ बन जाता है, शरीर और आत्मा की पथकता के दृढ़ अभ्यास से उसका देहाध्यास-शरीर पर ममत्व छूट जाता है । शरीर के सुख-दुःख, पीड़ा-व्यथा में वह व्याकुल नहीं होता, न ही आतध्यान करता है । देहाध्यास या देहासक्ति छूटने से पुनः-पुनः विविध योनियों में जन्म-मरण से वह छुटकारा पा लेता है । भेदविज्ञान के निरन्तर अभ्यास से वह अपने भव भ्रमण को अत्यन्त सीमित कर लेता है। ऐसे आत्मनिष्ठ को शरीर से सम्बन्धित घर, कुटुम्ब, जाति, लिंग, वेष, वर्ण, प्रान्त, देश आदि का कोई अभिमान पद या ममत्व नहीं होता। इस प्रकार की उच्च भूमिका पर आरूढ़ अन्तरात्मा सोते-जागते, एकान्त में या समूह में जो कुछ भी प्रवृत्ति या क्रिया करेगा, उससे उसे पापकर्म का बन्ध नहीं होगा। वह शुभ और अशुभ दोनों भावों को पुण्य-पापकर्म-बन्ध का कारण जान कर यथाशक्य शुद्ध भावों में ही रमण करेगा। जहाँ शक्य नहीं होगा, वहाँ अनासक्तभाव से शुभ भाव में प्रवृत्त होगा, किन्तु अशुभ भाव को तो कतई नहीं अपनाएगा। इस प्रकार का अन्तरात्मा शुद्ध आत्मभावों का अनुभव करके आत्माराधन द्वारा आत्मा में ही परमात्म भाव को जगा लेता है । ऐसा मानवात्मा ही परमात्मा बनता है। कहा भी है-आत्मा जब कर्मफल से विमुक्त हो जाता है, तब वह परमात्मा बन जाता है।
ऐसा व्यक्ति परमात्मपद को प्राप्त करने की दिशा में ही चल पड़ा है, अपने घर की ओर मुड़ा है, लेकिन वह परमधाम (घर) से अभी बहुत दूर है । वह अभी मंजिल तक पहुँचा नहीं है, रास्ते में ही है । यद्यपि इन आत्माओं को भौतिक सुख के प्रति अरुचि होती है। ये आत्मा के हितअहित, उत्थान-पतन, धर्म-अधर्म एवं सत्य-असत्य को भली-भांति समझते हैं, अहिंसा-सत्य आदि पर विश्वास भी रखते हैं, किन्तु चारित्रमोहनीय का जितना-जितना क्षयोपशम होता है, तदनुरूप वे आचरण भी करते हैं । मोक्षप्राप्ति या परमात्म-पदप्राप्ति की दिशा में उनके चरण आगे से आगे बढ़ते जाते हैं। अन्तरात्मा की दशा साधकदशा है। उसकी आध्यात्मिक जीवन की साधना अन्तरात्मपद से प्रारम्भ होती है और विकास पातीपाती परमात्मपद में परिसमाप्त होती है। साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका एवं सम्यग्दृष्टि मानव अन्तरात्मा की कोटि में आते हैं।
१ अप्पो वि य परमप्पो, कम्म विमुक्को य होइ फुड ।
-भावपाहुड १५१
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