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________________ १४० | अप्पा सो परमप्पा परन्तु मानव परमात्मपद का अधिकारी होते हुए भी अगर आत्मतत्व से बहिर्भूत सजीव-निर्जीव वस्तुओं को ही सब कुछ मानता है, उन पर 'मैं' और 'मेरे' की छाप लगाता है तो वह परमात्मा नहीं बन सकता। मानव-आत्मा की तीन श्रेणियाँ यही कारण है कि भगवान् महावीर ने मानव-आत्माओं की तीन श्रेणियाँ बताई हैं-(१) बहिरात्मा, (२) अन्तरात्मा और (३) परमात्मा। मानवात्मा का प्रथम प्रकार : बहिरात्मा ये तीन श्रेणियाँ उन संसारी मानवात्माओं की हैं, जो विकास के लिए उत्तरोत्तर आगे बढ़ती हैं। इनमें पहले विकास-यात्री बहिरात्मा हैं, जिनकी दृष्टि आत्मा से-आत्मगुणों से भिन्न–पर पदार्थों की ओर लगी हुई हैं। यह आत्मा की दरिद्रता अवस्था है। आत्मा से बाहर की वस्तुओं को ही वह अपनी मानता है। ऐसे व्यक्ति जितने-जितने अपने आत्मारूपी घर से बाहर जाते हैं, अपने तन-मन-वचन को बाहर भटकाते हैं। जितना वह बाहर झांकता है, उतना ही वह आत्मा के स्वर से दूर होता जाता है। भीतर का संगीत उसे बिलकुल नहीं सुनाई देता। वह जितना आत्मा से बाहर जाता है, उतना ही स्वभाव से आत्मिक गुणों से उसकी जड़ें उखड़ती जाती हैं । बहिरात्मा का जीवन दुःखमय, क्लेशयुक्त, प्रपंचपूर्ण, बोझिल हो जाता है। उसके जीवन में निराशा, ऊब, अज्ञानतमिस्रा, मोह-माया, रागद्वेष, वासना आदि बढती जाती हैं। बहिरात्मा के पास मानव की आत्मा होते हुए भी वह सर्वाधिक निकृष्ट और विकारी होती है । योगीश्वर आनन्दघन जी ने बहिरात्मा का लक्षण इस प्रकार बताया है “आतमबुद्ध कायादिक ग्रह्यो, बहिरातम अघरूप, सुज्ञानी !" जो व्यक्ति शरीर और शरीर से सम्बन्धित मन, वचन, अंगोपांग, बुद्धि, तथा धन, मकान, दूकान, बाग, कारखाना आदि समस्त परपदार्थो को आत्मबुद्धि से ग्रहण करता है, अर्थात्-शरीरादि को ही आत्मा समझता है, वह बहिरात्मा है। १ "तिप्पयारो सो अप्पा परमंतर-बाहिरो दु हेऊणं"-मोक्षपाहुउ ४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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