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________________ परमात्मा बनने की योग्यता किस में ? | १३९ वरण को दूर करना, तप-संयमादि द्वारा आत्मा को परिशुद्ध करना आव. श्यक है, वह देवयोनि में नहीं हो सकता। इसलिए देव भी परमात्मा बनने के सीधे अधिकारी नहीं है। अब आइए मनुष्यलोक में, जो इन सब घाटियों को पार करने के पश्चात् विशेष पुण्य राशि के कारण मिलता है। और संज्ञीपंचेन्द्रिव मनुष्य भव तो अत्यधिक पुण्यशाली जीव को मिलता है। मनुष्यजन्म में पांचों इन्द्रियाँ, उन्नत मननशील मन, शुभ-अध्यवसायिका बुद्धि, श्रद्धाशील हृदय तथा पूर्वकृत प्रचुर पुण्यवश जीव को स्वस्थ तन, धन और प्रचुर साधन भी मिलते हैं लेकिन इतना सब कुछ मिलने पर भी यदि आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल, श्रेष्ठ धर्म-संस्कार, आध्यात्मिक वातावरण नहीं मिलता है तो उस मनुष्य के अन्तर्मन में भी आत्मा-परमात्मा के, आत्मा के प्रचुर चैतन्य विकास से परमात्मपद प्राप्त करने के विचार नहीं पैदा होते । वह चिन्तन ही नहीं कर पाता कि मैं कौन है ? कहाँ से आया हूँ ? किस कारण से मनुष्यजन्म मिला है ? मुझे कहाँ जाना है ? मेरा अन्तिम लक्ष्य क्या है ? अतः ऐसे मानव के लिए परमात्मप्राप्ति के योग्य तप, संयम या सच्चे देव-गुरु-धर्म पर श्रद्धा एवं उनकी आराधना करना तो दूर रहा, इनका विचार तक नहीं आता । बल्कि टण्डा, दक्षिणी ध्रव के निवासी या अंदमान-निकोबार द्वीप के आदिमानव तथा अफ्रीका के कतिपय नरभक्षी बर्बर मानव तो धर्म-कर्म या आत्म-परमात्मा के विषय में न तो सुनते-समझते हैं और न हो विचार कर पाते हैं । उनका मनुष्य जन्म पाना, न पाना एक समान है। वे आत्मा से परमात्मा बनने के मार्ग से कोसों दूर हैं। इनके अतिरिक्त जो अभव्य मानव हैं, अथवा जो मिथ्यादृष्टिपरायण मनुष्य हैं, वे भी चाहे जितनी धर्मकरणी कर लें, चाहे जितना तप, कष्ट-सहन या नियम पालन कर लें, फिर भी वे बन्धनों से मुक्त न होने के कारण परमात्मा नहीं बन सकते। निष्कर्ष यह है कि जब तक चार घाती कर्मों से अथवा आठ ही कर्मों से मानवात्मा सर्वथा मुक्त नहीं हो पाते, तब तक परमात्मपद प्राप्त नहीं हो सकता। यह तो सभी धर्मों और दर्शनों का मत है कि आत्मा से परमात्मा अगर कोई प्राणी बन सकता है, तो एकमात्र वह मनुष्य ही बन सकता है। मनुष्य ही परमात्मपद का या मोक्ष का अधिकारी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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