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१३८ | अप्पा सो परमप्पा
भी नहीं कर पाते । उनका विभंगज्ञान भी इस सम्बन्ध में विचार न करके, पूर्वबद्ध वैर-विरोध का स्मरण करने में, परस्पर लड़ने भिड़ने का विचार करने में और क्रोधाग्नि प्रज्वलित करने में प्रयुक्त होता है । दृष्टि सम्यक् न होने से विभंगज्ञानी नारक आत्मा और परमात्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में यथार्थ चिन्तन कर ही नहीं पाते । यद्यपि नरक में भी कई जीव सम्यग्ef अवधिज्ञानी होते हैं, वे आत्मा और परमात्मा के शुद्ध स्वरूप का विचार तो कर पाते हैं, लेकिन परमात्म पद की प्राप्ति के लिए जिस तप, त्याग और संयम की आराधना की जरूरत है, उसे वे पूर्ण नहीं कर पाते । फलतः नारकीय जीवों की आत्माएं भी परमात्मा बनने के - परमात्म पदप्राप्ति के अयोग्य रहती हैं ।
कदाचित् कुछ आत्माएँ, पर्वतीय नदी में इधर-उधर लुढकने तथा टकराने से चमकीले बने हुए गोलमटोल पाषाण की तरह विविध योनियों में परिभ्रमण करती करती चार प्रकार के देवनिकायों में से किसी देवनिकाय में, यहाँ तक कि वैमानिक देवनिकाय में भी पहुँच जाती हैं । वहाँ पाँचों इन्द्रियाँ, सशक्तमन, वैक्रियशरीर, विभंगज्ञान या अवधिज्ञान भी प्राप्त होते हैं । परन्तु अधिकांश देव भोगविलास एवं वैषयिक सुखों तथा राग-द्व ेष, कषाय एवं मोह आदि विकारों में इतने अधिक मग्न रहते हैं कि उन्हें अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने यानी चैतन्य के प्रकाश पर आए हुए गाढ़ आवरण को दूर कर परमात्मत्व प्रगट करने का अवकाश भी नहीं मिल पाता; चिन्तन भी नहीं हो पाता। देवों में जो सम्यग्दृष्टि अवधिज्ञानी देव हैं, अथवा नो ग्रीवेयक तथा पाँच अनुत्तर विमानवासी देव हैं, उनके विषय - कषाय उपशान्त होते हैं, उनकी लेश्याएँ भी प्रशस्त होती हैं, फिर भी वे परमात्म- पद प्राप्ति के योग्य त्याग, तप, संयम, नियम, व्रत का परिपालन नहीं कर सकते। उनकी चेतना परमात्मत्व को प्रकट करने में अक्षम रहती है ! यही कारण है कि देव मनुष्यजन्म पाने के लिए तरसते हैं, छटपटाते हैं । ताकि मनुष्यजन्म प्राप्त करके वे आत्मा से परमात्म बन सकें; वैसी रत्नत्रय की साधना कर सकें । निष्कर्ष यह है कि परमात्म-पद- प्राप्ति के लिए आत्मा की ज्ञानचेतना पर आए हुए प्रगाढ़ कर्मा
१ 'भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक, ये देवों के चार निकाय हैं । • सं०
'देवाश्चतुर्निकाया: ' - तत्वार्थ सूत्र अ. ४ सू. १
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