SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमात्मा बनने की योग्यता किसमें ? | १३७ 1 संज्ञी तिर्यंचपंचेन्द्रिय की विविध योनियों में आईं। वहाँ वे जीव जलचर, स्थलचर, खेचर, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प के रूप में विविध स्थानों में पैदा हुए । द्रव्यमन भी मिला । पाँचों इन्द्रियां के झरोखे तो उपलब्ध हुए हो । मन का विशाल दरवाजा भी खुला । मन चाहे तो भूत, भविष्य और वर्तमान, तीनों को जान सकता है । इन्द्रियाँ तो केवल वर्तमान को ही जानती हैं । इन्द्रियों से प्राप्त जानकारी का संकलन करना, स्मृति रूप में संजोकर रखना, कल्पना करना, अनुमान लगाना एवं समय आने पर उस संकलित ज्ञान को व्यक्त करना या अन्तःस्फुरित कर देना मन का काम है । भूतकाल की घटना से निष्कर्ष निकालना, वर्तमान को बदलना और भविष्य को अपने अनुकूल बनाने का प्रयत्न करना तथा बुद्धि द्वारा निर्णय करना मन का ही खेल है । मन चाहे तो क्षण भर में स्वर्ग, नरक और तिर्यञ्च तथा मनुष्य लोक की यात्रा कर सकता है, और चाहे तो मुक्तिलोक के गगन में उड़ सकता है । शुभ-अशुभ कर्मों को बांधना अथवा प्रचुर कर्मबन्ध से मुक्त होना मन के बाँये हाथ का खेल है । परन्तु इतना सशक्त मन मिलने पर भी संज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीवों की चेतना का विकास उतना नहीं हो सका। इस कारण अधिकांश तिर्यंचपंचेन्द्रिय तो विवेक विकल रहे । उनका उपयोग पंचेन्द्रिय-विषयों की आसक्ति, कषायों की सघन रुचि में ही रहा । उन्हें परमात्म-दर्शन का विचार तक नहीं आया । कुछेक संज्ञी तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों में चेतना का विकास बढ़ा । वे पूर्वजन्मकृत कर्मों के क्षयोपशम के कारण सम्यग्दृष्टि बनते हैं । तथा कुछेक श्रावकव्रती भी बनते हैं । परन्तु उनकी संख्या बहुत ही नगण्य होती है । परमात्म- पद प्राप्ति के योग्य बनन के लिए जिस प्रकार के सम्यग्ज्ञानदर्शन - चारित्र की, या स्वरूपरमण की अथवा उच्च संयम-पालन की क्षमता चाहिए, वह उनमें नहीं आती, आ भी नहीं सकतो, क्योंकि उनकी चेतना पर आया हुआ प्रगाढ़ आवरण अभी तक हटा नहीं है । निष्कर्ष यह है कि संज्ञी तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीव भी परमात्म-पद-प्र द- प्राप्ति के अनधिकारी रहते हैं । कतिपय जीवों ने नरकलोक की यात्रा की । वहाँ भी पाँचों इन्द्रियाँ तथा द्रव्य मन आदि चिन्तनयोग्य सामग्री भी मिली । वैक्रियशरीर और विभंगज्ञान भी उन्हें जन्म से ही प्राप्त हुआ । फिर भी वहाँ दीर्घकाल तक अनेक दुःखों और विकट यातनाओं को सहते-सहते उनका मन इतना अधोर और बेचैन हो उठता है कि वे आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध में विचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy