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________________ परमात्मा बनने का दायित्व : आत्मा पर | १२१ स्वाभाविक है । सूर्य ये सब करता है, ऐसी बात नहीं है, सूर्य की उपस्थिति से यह सब होता है । यह सहज परिणाम है । इसी प्रकार तीर्थंकर या वीतराग परमात्मा स्वयं दूसरों का कुछ करते हैं, या दूसरों को सुखी दुःखी या नाथ बनाते हैं, या बनाने या करने का सोचते हैं, यह उनके सिद्धान्त के विपरीत हैं। उनकी विद्यमानता से दूसरों का कुछ होता है, दूसरों को लाभ मिलता है । श्रमण भगवान् महावीर का यही सन्देश था कि तुम स्वयं के पुरुषार्थ से नाथ बनो, दूसरे किसी से यह आशा मत रखो कि वह तुम्हें नाथ बना देगा, या तुम्हार नाथ बनेगा । तुम स्वयं के पुरुषार्थ से अपनी आत्मा के नाथ बनोगे, आत्मविजयी बनोगे एवं तुम्हारी आत्मा पर आये हुए सभी आवरण हट जायेंगे और तुम परिपूर्ण हो जाओगे तो तुम्हारे जीवन में यह सब घटित होता रहेगा, जिससे दूसरों को भी लाभ होगा; दूसरों को लाभ देना तुम्हारा मूल प्रयोजन नहीं है । वह लाभ तुम्हारा लक्ष्य नहीं है । दूसरों को लाभ होना सहज परिणाम है । वह लाभ स्वाभाविक होता है । भगवान् महावीर अगर दूसरों को नाथ बनाने, या परिपूर्ण बनाने या स्वयं दूसरों के नाथ बनने की बात सोचते तो उनका स्वयं का अन्तेवासी शिष्य बना हुआ मंखलीपुत्र गोशालक उनके सान्निध्य में लगभग छह वर्ष तक रहकर भी क्यों नहीं परिपूर्ण हो गया ?1 उसे भगवान् महावीर ने आत्मा का नाथ क्यों नहीं बनाया ? भगवान् महावीर जैसे प्रबल निमित्त के होते हुए भी गोशालक उनसे कुछ भी आध्यात्मिक विकास का लाभ न ले सका, और गणधर गौतम ने उनसे प्रचुर आत्मिक विकास का लाभ लिया। इसमें मूल कारण है-अपने-अपने उपादान का । उपादान शुद्ध होता है तो कोई भी अच्छा निमित्त मिल जाता है । और उपादान शुद्ध नहीं होता है, तो अच्छे से अच्छा निमित्त मिलने पर भी परिणाम विपरीत आता है । इसीलिए तथागत बुद्ध से भी जब पूछा गया कि कौन किसका नाथ है ? तो उन्होंने स्पष्ट कहा 2" अत्ता हि अत्तनो नाथो को हि नाथो परो सिया ।" १ देखिये, भगवती सूत्र शतक १५ गोशालकाधिकार । २ धम्मपद । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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