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१२२ / अप्पा सो परमप्पा
आत्मा ही अपना नाथ है। दूसरा कौन किसी का नाथ हो सकता है ?
तीर्थंकरों या महान् आत्माओं को लोग भक्ति की भाषा में श्रेय दे देते हैं कि आप जगत् के नाथ हैं।
आत्मार्थ को सोचो, पदार्थ को नहीं वास्तव में, भगवान महावीर ने साधकों से-गृहस्थवर्ग या साधुवर्ग सभी से यही कहा कि 'पर' का कुछ करने विचार मत करो। अपना आत्मार्थ साधो। परार्थ करने की बात ही मत सोचो। आत्मार्थ को कई लोग भ्रान्तिवश स्वार्थ (खुदगर्जी) अर्थ में ले लेते हैं, यह ठीक नहीं । आत्मार्थ का अर्थ होता है-अपना हित, अपना कल्याण, अपना विकास, अपना प्रयोजन । तीर्थंकरों ने सदा से यहो कहा-जो आत्मार्थ को पूरा साध लेते हैं, उनसे परार्थ अपने आप सध जाता है । परम स्वार्थ ही दूसरे शब्दों में परमार्थ है। कारण यह है कि जो अपने हित, अपने कल्याण और अपने मंगल के लिए पुरुषार्थ करता है, अपना हित साधता है, वह दूसरों का अहित, अकल्याण या अमंगल कर ही नहीं सकता, क्योंकि वह यही सोचता है कि दूसरों का अहित या अकल्याण करने में मेरा ही अहित-अकल्याण है। जिसने अपने कल्याण और हित को भली-भाँति जानना, पहचानना
और साधना शुरू किया, वह क्रमशः यह जानने लगता है कि जो अपने हित या कल्याण के लिए उचित नहीं है, वह दूसरे के हित या कल्याण के लिए उचित नहीं है। जिससे अपना अहित होता है, उससे दूसरे का भी अहित हो सकता है, जो अपने लिए हितकर है, वही दूसरे के लिए भी हितकर हो सकता है । इसीलिए श्रमण भगवान् महावीर ने कहा
"अप्पणा सच्चमेसेज्जा, मेत्ति भूएहिं कप्पए ।"1
"अपनी आत्मा से सत्य का अन्वेषण करो, और प्राणिमात्र के प्रति मैत्रीभाव का विचार करो।"
जिन कार्यों से मैत्रीभाव भंग हो, अमैत्रीभाव हो, उन्हें स्वयं त करो; क्योंकि जैसी तुम्हारी आत्मा है, वैसी ही दूसरे की आत्मा है। तुम्हारे और दूसरे की आत्मा के स्वभाव में जरा भी अन्तर नहीं है। तुम्हें
१ उत्तराध्ययन अ०६ गा०२।
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