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१२० । अप्पा सो परमप्पा
इसका तात्पर्य यह है कि दूसरे का नाथ बनना अथवा दूसरे को सुख-दुःख देना किसी के वश की बात नहीं है। 'करना' और 'होना' में अन्तर
प्रश्न होता है कि तीर्थकरों के लिए जो यह कहा जाता है कि 'लोगनाहाणं- आप लोक के नाथ हैं, इसका क्या रहस्य है ? जब कोई किसी का नाथ बन नहीं सकता, तब तीर्थंकर कैसे दूसरों के नाथ बन सकते हैं ?
इसका समाधान यही है-'करना' और 'होना' ये दोनों अलगअलग बातें हैं। तीर्थंकर जैसे महान् व्यक्ति तीर्थंकर अवस्था में दूसरों का कुछ करते नहीं। वे यह नहीं सोचते कि मैं किसी का नाथ बनें, किसी को सुखी करूं । वे करने की भाषा ही नहीं बोलते, न ही सोचते हैं । वे स्वयं अपनी आत्मा के नाथ बनने की साधना करते हैं, या कर चुके हैं। उनसे कोई प्रेरणा लेकर स्वयं का नाथ बनने की साधना करता है, तो करे । वे मन से भी यह नहीं सोचते कि मुझे दूसरे लोगों को नाथ बनाना है, अथवा मुझे अमुक लोगों का नाथ बनना है। वे दूसरों को नाथ बनाते नहीं, न ही दूसरों के नाथ बनते हैं। उनसे प्रेरणा लेकर दूसरे नाथ हो जाते हैं । होते हैं, करते नहीं । दूसरे का होना' स्वयं का कृत्य नहीं है । यही तीर्थंकरों की भावदशा है। दूसरे लोग जब स्वयं अपने नाथ बनते हैं, तब महावीर जैसे तीर्थंकरों को श्रेय देते हैं कि आप जगत् के जीवों के नाथ हैं। जबकि तीर्थंकर किसी के नाथ बनने की या किसी को नाथ बनाने की चेष्टा स्वयं नहीं करते। वे स्वयं हिसाब लगाने नहीं बैठते कि मुझे इतने लोगों का नाथ बनना है, या इतने अनाथ व्यक्तियों को नाथ बनाना है।
सूर्य प्रातःकाला उदित होने से पहले रात को कोई हिसाब लगाने नहीं बैठता कि मुझे कल कितने फूल या कमल खिलाने हैं, कितने पौधों और वनस्पतियों में प्राण-संचार करने हैं, कितने पक्षियों के कण्ठ में गीत भरने हैं, कितने मयूरों को नचाना है, कितने सोये हुए लोगों को जगाना है, नित्य-कृत्य में लगाना है, कितने फलों को पकाना है ? अगर आप सूर्य से पूछे तो वह कभी ऐसा नहीं कहेगा कि मुझे उदित होकर ये-ये काम करने हैं । सम्भव है, उसे तो पता भी नहीं होगा कि मेरे उगने से सोये हुए लोग जगते हैं, फूल खिलते हैं, पक्षी चहचहाते हैं, प्रभात होता है । यह सब
१ 'नमोऽत्थुणं'- शक्रस्तव का पाठ ।
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