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परमात्मा बनने का दायित्व : आत्मा पर | ११६
कल्याण या अपना स्वार्थ-प्रयोजन अपनी आत्मा के हाथ में है। दूसरा कोई भी, यहां तक कि परमात्मा भी अपना हित, कल्याण या मंगल नहीं कर सकते।
स्वयं अनाथ, दूसरों का नाथ नहीं बन सकता जो व्यक्ति स्वयं सुखी नहीं है, वह दूसरों को कैसे सुखी कर सकता है ? जो स्वयं संसार के जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि या कर्मजन्य दुःखों से ग्रस्त है, वह दूसरों को सुख या आनन्द दे सके, यह बात अनुभव के विपरीत है । जो स्वयं अपना नाथ नहीं है, वह दूसरों का नाथ कैसे बन सकता है ? उत्तराध्ययन सूत्र में मगधसम्राट् श्रेणिक और अनाथीमुनि का संवाद इस सम्बन्ध में बहुत ही प्रेरक है। अनाथीमुनि को अकिचन और सुख-सुविधाओं से रहित देखकर श्रेणिक राजा ने उनके समक्ष प्रस्ताव रखा कि आप इतने तेजस्वी और यौवनवयस्क प्रतीत होते हैं, फिर आप इस सम्पन्नता की अवस्था में सब कुछ त्यागकर मुनि क्यों बने ?' मुनि का संक्षिप्त उत्तर था-"मैं अनाथ था।''1 लोक व्यवहार में 'अनाथ' का अर्थ होता है-"जिसके माता-पिता, भाई-बन्धु आदि कोई न हो, जो असहाय और अभावपीडित हो।" इसी अर्थ म श्रोणिक राजा ने मुनि को अनाथ एवं अभावग्रस्त समझकर उनसे कहा- "लो मैं आपका नाथ बनता हैं। आपको समस्त परिवार से युक्त बना, देता हूँ। आप नाथ बनकर मनचाहे भोगों का उपभोग करें। आपको मैं जरा से अभाव से भी पीड़ित नहीं रहने दूगा। चलिये मेरे यहां।"
इसके उत्तर में मुनि ने जो वाक्य कहा था, वह भगवान् महावीर की आत्म-परक दृष्टि से ओतप्रोत था
"अप्पणाऽवि अणाहोऽसि, सेणिया मगहाहिवा । अप्पणा अगाहो संतो, कहं नाहो भविस्ससि ॥"2
हे मग धाधिप श्रेणिक ! तू स्वयं भी तो अनाथ है । जो स्वयं अनाथ है, वह दूसरों का नाथ कैसे बन सकता है ?
१ 'अणाहोमि महाराय ! नाहो मज्झं न विज्जइ ।'
--उत्तराध्ययन सूत्र अ. २०, गा. & २ उत्तराध्ययन अ० २० गा० १२।
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