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________________ आत्मानुभव : परमात्म-प्राप्ति का द्वार | ११७ पर्याप्तिभाव के प्रसंग आते हैं, पर उसे यह स्पष्ट बोध-स्पष्ट अनुभब होता है कि इन सबसे मैं अस्पष्ट हैं, पथक हूँ । इस कारण समस्त बाह्य घटनाओं और परिवर्तनों में वह साक्षोभाव से विचरण करना पसन्द करता है। भौतिक जीवन के उतार-चढ़ाव में आत्मानुभवी बहधा स्थितप्रज्ञ रहकर पार हो जाता है । उसमें उसे कुछ खाने को भोति या पाने को अपेक्षा नहीं होती। उसकी एकमात्र इच्छा 'स्व' में स्थिर होने को होती है। चारित्रमोहनीयकर्मवश चित्त में उठतो वृत्तियों के आवेगों को उपशांत करके वह स्वभाव में अधिकाधिक स्थिर रहने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार आत्मानुभवी का समग्र जोवन समतायोगमा ज्ञाताद्रष्टारूप हो जाता है। आत्मानुभूति : परमात्नप्राप्ति के द्वार तक पहुँचाने वाली निष्कर्ष यह है कि आत्मानुभूति को दृढ़ नोंव पर जिसके जीवन का निर्माण हो, वह आत्मतृप्त व्यक्ति अविनाशो परमात्मा का शान्त सान्निध्य सतत अनुभव करता है, क्योंकि उसे अपनी अखण्ड सत्ता, सुरक्षा तथा जानानन्दमयो स्थिति का सतत अनुभव रहता है। वह हर्ष, शोक,राग-द्वेष, द्रोह-मोह, यश-अपयश के द्वन्द्वों से पर निर्भय, निरीह, निराकुल एवं निःस्पृह रहता है । अभ्यासवरा उसे ध्याता-ध्येय को एकता या आत्मारामतारूप अनुभवप्राप्ति इसी जन्म में सम्भव हो जातो है। ऐसी अनुभूति ही उसे परमात्मा के द्वार तक पहुँचा देतो है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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