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________________ ११६ | अप्पा सो परमप्पा बुनियाद पर प्रतिष्ठित प्रतिभासित हो रहा है, वह रातोरात असह्य अभाव की परिस्थिति में पड़ जाता है। राष्ट्रपति देश द्रोही समझकर कैद कर लिया जाता है, करोड़पति रोडपति हो जाता है, निर्धन दशा में जेल के सींखचों के पीछे धकेल दिया जाता है । सरकारी व्यवस्था तन्त्र में रद्दोबदल हो जाए या अर्थतन्त्र में अकल्पित उथल-पुथल हो जाए अथवा राज्य के कानून कायदों में सहसा परिवर्तन हो जाए तो व्यवसाय की सारी परिस्थिति में जबर्दस्त परिवर्तन आ जाता है । अथवा किसी नगण्य निमित्त को लेकर परिवार में खींचातानी या मन-मुटाव हो जाए तो स्नेही परिवार के अन्य सभी सदस्य उसके विरोधी बनकर खड़े हो जाते हैं। अथवा अकस्मात् कोई जानलेवा व्याधि शरीर में पैदा हो जाती है, तो वह व्यक्ति को पराधीन बना देती है। इस प्रकार जीवन में नाना विपत्तियाँ, विघ्नबाधाएँ, अड़चनें और दुःखदायी परिस्थितियां पूर्वबद्ध कर्मों के फलस्वरूप आती हैं, उस समय सामान्य मानव जहाँ आर्तध्यान करके हाय-तोबा मचाने लगता है, वहाँ जिसे अपने अविकारी शुद्ध स्वरूप की प्रतीति हो गई है, वह आत्मानभवी ऐसी विकट परिस्थितियों में से उत्पन्न होने वाली असुरक्षितता की भीति, चित्तक्षोभ, दीन-हीनताभाव और आर्तध्यान से स्वयं को दूर रख पाता है। उसकी अन्तरात्मा में ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाता है कि ये सब पदार्थ या परिस्थितियां क्षणिक हैं; ये सब संयोग या परिस्थितियाँ पुद्गल कृत या कर्मकृत हैं, औदयिक भावजन्य हैं। ये मुझे बेचैन नहीं बना सकते, क्योंकि मेरी आत्मा परमानन्दमय है, ज्ञानदर्शनस्वरूप है। अपनी (आत्मिक) सूख-सम्पत्ति, सुरक्षा एवं सत्ता (अस्तित्व) बाह्य वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति से निरपेक्ष है । इस प्रकार की समझ और श्रद्धा-विश्वास उस के अवचेतन मन के स्तर पर स्थिर हो चुकते हैं कि बाह्य जगत् में होने वाली चाहे जैसी उथल-पुथल से या अनचाही प्रतिकूल मोड़ लेने वाली परिस्थितियों से वह क्षुब्ध, व्यग्र या व्याकुल नहीं होता । समस्त सांसारिक विडम्बनाओं, अनिष्ट स्थितियों, संकटों और विपदाओं के बीच आत्मानुभवी समभाव में या ज्ञाता-द्रष्टा-भाव में स्थिर रह सकता है; क्योंकि उसका जीवन-दर्शन ही बदल जाता है। यह बात उसकी अन्तरात्मा में उत्कीर्ण हो जाती है कि अपनी सुख-सम्पदा, सुरक्षा और शान्ति, तथा अपना अस्तित्व 'पर' पर निर्भर नहीं है। इस प्रकार आत्मलक्ष्यी अनुभव के कारण वह बाह्य उथल-पुथल से व्यग्रता एवं खिन्नता का अनुभव नहीं करता। यद्यपि पूर्वकृत (प्रारब्ध) कर्मानुसार उसके बाह्य जीवन में सुख-दुःख, मान-अपमान, लाभ-अलाभ, सम्पत्ति-विपत्ति, अभाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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