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आत्मानुभव : परमात्म-प्राप्ति का द्वार | ११५
दिया हुआ पार्ट अदा करना पड़ता है । इस प्रकार के भानपूर्वक वह अपने कर्मकृत व्यक्तित्व को जानता-देखता रहता है। ऐसा स्वानुभूति-सम्पन्न व्यक्ति दुनिया की दृष्टि में चाहे जितने गौरवशाली पद या स्थान पर हो, फिर भी कर्म के परवश वह अपनी वर्तमान गुलाम अवस्था मानता है। इसलिए उसके अन्तर में तो खटक होती रहती है । देह और मन की बाह्य सर्वपर्यायों को वह कर्मजनित मानकर अपने (आत्मा) से पृथक वस्तु के रूप में देखता है, इसलिए उनके प्रति राग, मोह, ममत्व या द्वष, घृणा, रोष आदि अत्यन्त मन्द होते हैं। चारित्रमोहनीयकर्म के उदयवश वह बाह्य विषयोपभोग आदि में प्रवृत्त दिखाई देता है, किन्तु उसके अन्तर की गहराई में तो विषयोपभोग आदि के प्रति आनन्द के बदले विरक्ति, उदासीनता या अनासक्ति होती है । देहादि सब कर्मजनित हैं, मेरे से पृथक् हैं, परभाव हैं, एक ओर इस प्रकार की प्रतीति उसे व्यक्त या अव्यक्तरूप से रहती है, दूसरी ओर उसे यह भान भी रहता है कि मैं परभाव में घिसटता जा रहा हैं। इस कारण उसका मन विषयोपभोगों में या अन्य राग-मोहवर्द्धक प्रवृत्तियों में तीव्ररसपूर्वक नहीं जुड़ता। ऐसो प्रवृत्तियों में उसकी प्रायः गाढ़ कर्तृत्व-भोक्तृत्वबुद्धि नहीं रहती।
परमात्म-पद तक की उड़ान के लिए आत्मानुभूति की ठोस भूमिका
जिस प्रकार पक्षी को अनन्त आकाश में उड़ने के लिए नीचे ठोस भमि की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार आध्यात्मिक गगन में उड़कर परमात्म-पद तक पहुँचने के लिए उड़ान भरने से पूर्व साधक को आत्मानुभूति की ठोस भूमिका की आवश्यकता होती है।
आत्मानुभवी के आत्मतृप्त जीवन का चमत्कार सामान्य व्यक्ति प्रायः परिवार, सम्पत्ति, पद, प्रतिष्ठा, सामाजिक अग्रगण्यता, बौद्धिक चातुरी, व्यवसायकौशल और शारीरिक स्वास्थ्य आदि को ही जीवन के आधार मानकर जीता है । परन्तु आत्मानुभवी को ये सब विनाशशील, क्षणभंगुर, आपातरमणोय, संसार का मोह-ममता में फंसाने वाले एवं जन्म-मरणरूप संसारचक्र में भ्रमण कराने वाले प्रतीत होते हैं । वह सोचता है, किस क्षण ये सब धराशायी हो जायेंगे, यह निश्चित नहीं है।
हम देखते हैं कि जिसका जीवन आज सही-सलामत और स्थिर
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