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१०४ | अप्पा सो परमप्पा भयमुक्त वास्तविक स्थिति की प्रतीति नहीं हो पाती। किन्तु जब टोर्च से उस माने हुए सर्प पर प्रकाश डालकर दिखाया जाता है, तो रस्सी में सर्प का भ्रम और भय दोनों समाप्त हो जाते हैं । इसो प्रकार आत्मा के विषय में मन, बुद्धि एवं तर्क-वितर्कों द्वारा विविध शंकाएं एवं भ्रान्तियाँ नहीं मिटती, इन्द्रियों तथा वाणी आदि से सत्यता की प्रतीति नहीं हो पाती, श्रु तज्ञान से, विविध शास्त्रों के अध्ययन से भी ऐसी भ्रान्तियाँ नहीं मिटती ।। वे भ्रान्तियां मिटती हैं-अनुभव की निर्मल ज्योति से; आत्मा के अबद्ध, शूद्ध, ज्ञानमय, आनन्दमय, आत्मशक्तिमय स्वरूप को श्रवण, मनन तथा बार-बार पुनःस्मरण करके प्रत्यक्ष अनुभव करने पर। अध्यात्मसार में इसी तथ्य को स्पष्ट किया गया है।
तुर्यावस्थारूप आत्मानुभव से परमात्मा के साथ अभिन्नतानुभव
ज्ञानी पुरुषों ने आत्मानुभूति को तुर्यावस्था-चतुर्थ अवस्था बताई है। सुषुप्ति, स्वप्न और जागृति, इन तीन अवस्थाओं से सब परिचित हैं । 'सुषुप्ति' (गाढ निद्रा) अवस्था में बाह्य जगत् के साथ सम्पर्क टूट जाता है । इन्द्रियाँ और मन अपना काम बन्द करके छुट्टी मनाते हैं। उस समय हम शून्यता में खो जाते हैं। कई बार हम शून्यता में खो जाने के बदले 'स्वप्न' देखते हैं। स्वप्नावस्था में इन्द्रियाँ बाह्य जगत् का भान नहीं करती, शरीर भी निश्चेष्ट पड़ा रहता है। बाह्य मन भी जगत् से बेखबर रहता है, किन्तु अन्तर्मन गतिशील रहता है। तीसरी अवस्था है-जागृति । जागृत अवस्था में बाह्य मन और इन्द्रियाँ गतिशील रहकर, बाह्य जगत् के साथ सम्बद्ध होकर उसका ज्ञान कराते हैं, आत्मा का भी बाह्य दृष्टि से ज्ञान करा देते हैं, किन्तु अन्तर्जगत् का-आत्मा का यथार्थ ज्ञान वे नहीं करा सकते । वह ज्ञानभान एवं दृढ़निश्चय होता है-अनुभूति से । इसलिए अनुभूति की अवस्था को 'तुर्या' कहा गया है, जो इन (पूर्वोक्त) तीनों से पृथक् है । उसका अपना महत्त्व एवं स्वतंत्र स्थान है।
गाढ़ निद्रा (सुषुप्ति) में बाह्य जगत् की विस्मृति हो जाती है, उसके साथ जागृति भी चली जाती है, जबकि तुर्या के इस अनुभव के समय १. व्यापारः सर्वशास्त्राणां दिग्प्रदर्शनमेव हि।
पारं तु प्रापयत्येकोऽप्यनुभवोः भववारिधेः।।-ज्ञानसार अनुभवाष्टक श्लोक २ २. श्रुत्वा मत्वा मुहुः स्मृत्वा साक्षादनुभवन्ति ये । तत्त्व न बन्धधीस्तेषामात्माऽबन्ध: प्रकाशते ।।
-अध्यात्मसार, आत्मनिश्चयाधिकार श्लोक २
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