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________________ आत्मानुभव : परमात्म-प्राप्ति का द्वार | १०३ इसी प्रकार व्याकरणाचार्य पण्डित के मस्तिष्क में व्याकरण शास्त्र के छहों खण्ड भरे होने पर तथा आत्मा की शब्दस्पर्शी चर्चा करने लेने पर भी उसे आत्मानुभूति का आनन्द नहीं आता। पृथ्वी रत्नगर्भा कहलाती है। उसके पेट में हजारों मणि, माणिक्य एवं रत्त रहते हैं, परन्तु उन रत्नों के रहते भी वह शोभा नहीं पाती, क्योंकि वह उन्हें यथास्थान धारण नहीं कर पाती । इसी प्रकार तर्कशास्त्री के मस्तिष्क में हजारों तर्क रत्न आत्मा के विषय में होने पर भी वह जब आत्मा को स्वभाव एवं निजी गुणों के अनुरूप अनुभवरत्नों से अलंकृत नहीं कर लेता तब तक वह आध्यात्मिक शोभा नहीं पा सकता। निष्कर्ष यह है कि एक व्यक्ति तप, जप, क्रियाकाण्डों के चाहे जितने अम्बार लगा दे, बाह्य आचरण चाहे जितना ऊँचा बता दे, कितने ही कष्ट सह ले, संयम का चाहे जितना प्रदर्शन कर दे, आत्मा के विषय में चाहे जितने लच्छेदार भाषण कर दे, लेख लिख दे, तर्कों के तीर छोड़ दे, किन्तु जब तक उन शब्दों के साथ आत्मा के स्वभाव-धर्म का स्पर्श नहीं होगा, तब तक वे सब क्रियाकलाप निरर्थक सिद्ध होंगे, वे आत्मा को सच्चिदानन्द-स्वरूप परमात्मा तक पहुँचाने वाले सोपान नहीं बनेंगे। आशय यह है कि शब्दों से आत्मा को अस्तित्व एवं स्वरूप को चाहे जितना जान लेने पर भी जब तक आत्मा के स्वरूप और स्वभाव की, निजी गुणों की तथा आत्मा की शक्तियों की दृढ प्रतीति एवं निश्चिति नहीं हो जाती, तब तक उसे सही माने में आत्मानुभूति नहीं कही जा सकती।। आत्म-विषयक भ्रान्तियां अनुभव से ही मिटती हैं रात्रि के गाढ़ अन्धकार में रस्सी को सांप मान लिया जाता है, तब वह रस्सी व्यक्ति के चित्त में भय उत्पन्न कर देती है । ऐसे व्यक्ति को शब्दों से या यूक्तियों से चाहे जितना समझाया जाये कि इस स्थान में सपं का भय नहीं है, फिर भी उसके दिमाग में घुसा हुआ भय निकालता नहीं, उसे १ अतीन्द्रियं परं ब्रह्म, विशुद्धानुभवं बिना । शास्त्रयुक्तिशतेनाऽपि नैव गम्यं कदाचन ॥२१॥ अधिगत्याखिलं शब्द ब्रह्म शास्त्रदृशा मुनिः । स्वसंवेद्यं परं ब्रह्मानुभवेनाऽधिगच्छति ।।२८॥ -अध्यात्मोपनिषद, ज्ञानयोग, श्लोक २१-२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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