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________________ १०२ ! अप्पा सो परमप्पा अन्दर भरे हुए कोरा शब्दशास्त्री आत्मा का अनुभव कैसे कर सकता है, क्योंकि वह ऊपर-ऊपर तैरता है | क्या समुद्र के अन्दर डुबकी लगाए बिना केवल उसके किनारे पर खड़े रहने और समुद्र के स्वरूप का वर्णन कर देने से मोती या रत्न मिल सकते हैं ? इसी प्रकार जो शब्दशास्त्री लच्छेदार शब्दों में आत्मा के अस्तित्व एवं स्वरूप का शब्दस्पर्शी वर्णन करके ही रह जाता है, अन्दर में डुबकी लगाकर नहीं खोज पाता, क्या उसे आत्मानुभव रूपी मोती या रत्न मिल सकते हैं ? कस्तुरीमृग की नाभि में कस्तूरी होती है, उसकी सुगन्ध भी उसे आ रही है, पर वह उसकी सुगन्ध को अन्यत्र ढूंढ़ता फिरता है, उसके निकट होते हुए भी वह उस सुगन्धि का लाभ नहीं उठा पाता । इसी प्रकार आत्मा प्राणी के अत्यन्त निकट होते हुए भी वह उसे ढूंढने और खोजने पर्वतों, नदियों, गुफाओं, तीर्थों आदि में भटकता है । अत्यन्त निकट होते हुए भी शुद्ध आत्मा के गुणों की सौरभ वह प्राप्त नहीं कर पाता । एक अमृतबान मुरब्बे से भरा हुआ है । किन्तु वह अमृतबान कभी मुरब्बे के स्वाद को या सुगन्ध को प्राप्त नहीं कर पाता । इसी प्रकार अनन्तज्ञानादि से परिपूर्ण आत्मा अपने इन ज्ञानादि रत्नों को तब तक नहीं प्राप्त कर सकता, जब तक कि वह अपनी आत्मा में भरी हुई ज्ञानादि निधि को भलीभाँति जान न ले, पर सम्यक् विश्वास और निश्चय न कर ले । स्टील के कमण्डल में बारबार घी भरा जाता है । वह लाखों मन घी जिंदगीभर में पी जाता है, परन्तु घी के स्वाद से वह रिक्त ही रहता है । इसी प्रकार शब्दशास्त्री लाखों शब्दों का चयन करता है, लाखों वाक्य आत्मा के सम्बन्ध में लिखपढ़ लेता है, किन्तु जब तक वह आत्मा का अनुभव करने के लिए गहराई से अन्तर् में डुबकी नहीं लगाता, तब तक आत्मानुभूति का स्वाद नहीं आ सकता । आटा चक्की लाखों मन अनाज चबा जाती है, पर क्या उसे आटे का स्वाद आता है ? इसी प्रकार विद्वान् वक्ता आत्मा के विषय में लाखों पुस्तकें पढ़ लेता है, हजारों लेख लिख डालता है, किन्तु उसे आत्मा का यथार्थ अनुभव तब तक नहीं होता, जब तक कि वह आत्मा के विषय में स्वयं यथार्थं स्वरूप हृदयंगम करके दृढ़निश्चय और अनुभव नहीं कर लेता | गधे की पीठ पर चन्दन के बोरे लाद देने पर भी वह उसकी सुगन्ध और शीतलता का अनुभव नहीं कर पाता, वह केवल भार ढोता है । उस १ तुलना कीजिए - जहा खरो चंदण - भारवाही, भाररसवाही न हु चंदणस्स || एवं खु नाणी चरणेणहीणो नाणस्स भारो, न हु सोग्गइए || - आ. नि. १०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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