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________________ आत्मानुभव : परमात्म-प्राप्ति का द्वार | १०५ बाह्य जगत् का भान न होने पर भी पूर्ण सावधानी = जागृति होती है। और अपने (आत्मा के) सच्चिदानन्दपूर्ण अस्तित्व का प्रबल अनुभव होता है। एक संत ने इस अवस्था का वर्णन करते हुए कहा है "जागृति में हुई गाढ़निद्रा से मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, अहंकार आदि सब निद्राधीन हो जाते हैं। किन्तु उस (तुर्या के) समय देह में परमात्मा (ईश्वर) जागता है।" निष्कर्ष यह है कि तुर्यावस्था की अन्तर्जागृति से जो आत्मानुभव होता है, उससे विश्व का यथार्थ मूल्य समझ में आ जाता है; तथा परमात्मा के साथ अपने अभेद सम्बन्ध का भान हो जाता है। अर्थात-उसे यह विश्वास हो जाता है कि परमात्मा की अक्षय सत्ता, अखण्ड आनन्द एवं अनन्त ज्ञान अपने अन्दर भरा पड़ा है। इसीलिए कविवर बनारसीदास जी ने अनुभव का माहात्म्य बताते हुए कहा है अनुभव चिन्तामणि रतन, अनुभव है रसकूप । अनुभव मारग मोख को, अनुभव मोख-सरूप ।।1 सचमुच, सर्वविशुद्ध आत्मा की अनुभवदशा ही परमात्मदशा है, यही मोक्ष है। आत्मानुभूति से परमात्म-पथ की ओर तीव्र गति-प्रगति जिसे आत्मानुभव हो जाता है, उस व्यक्ति के अन्तर् की गहराई में प्रतिकूल दिखाई देने वाली बाह्य परिस्थितियों में भी प्रसन्नता का एक शान्त प्रवाह बहता रहता है । कदाचित् चेतना के ऊपरी स्तरों में क्षोभ की जरा सी लहरें आ जाती हों, फिर भी उसकी अन्तश्चेतना विपत्ति के क्षणों में भी क्षब्ध नहीं होती। अमावस्या की घोर अन्धेरी रात में अपरिचित भूमि में शंका-कुशंका से घिरा हुआ यात्री लड़खड़ाता हुआ कदम रख रहा हो, वहाँ अचानक बिजली चमक जाए तो उस यात्री को आगे का मार्ग अपने सामने दिखाई देता है, तब उसे कितना आश्वासन मिलता है ? फिर तो उसके डगमगाते हुए वे कदम विश्वास से, कितनी तेजी से आगे बढ़ते हैं ? मार्ग तो उतना का उतना ही तय करना होता है, फिर भी यात्री अब निश्चिन्त हो जाता है। इसी प्रकार आध्यात्मिक-पथ का यात्री भी चारों ओर मिथ्यात्व एवं अज्ञान से घिरे जगत् में आत्मानुभूति की बिजली चमक जाने पर निश्चितता और स्वस्थता का अनुभव करता है। और १. समयसार नाटक (कविवर बनारसीदासजी रचित) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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