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________________ ६६ | अप्पा सो परमप्पा हैं, उन्हें क्रमशः अपने मन के स्मृतिपट पर लायें । जन्म के समय का, बाल्यावस्था का, किशोरावस्था और फिर युवावस्था का और वर्तमानकाल का यह शरीर कितना परिवर्तित हो गया है ? परन्तु इन सब परि. वर्तनों के बीच 'मैं' की प्रतीति तो एक सरीखी रही है । 'मैं' की प्रतीति में कोई न्यूनता नहीं आई। इसलिए यह निश्चित हुआ कि शरीर 'मैं' (आत्मा) नहीं हूँ। 'मैं' नामक तत्व का (आत्मा) शरीर से पृथक् अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है। __ इसके पश्चात् बचपन से लेकर आज तक अपनी इच्छाओं, आकां क्षाओं, रुचियों, वृत्तियों आदि को भी पूर्ववत् टटोलें । आप देखेंगे कि ये भी बदलती रही हैं-अवस्था एवं परिस्थिति के अनुसार। परन्तु इन सबके अन्दर रहा हुआ जो 'मैं' है, वह एक रूप रहा है । वह जन्म से आज तक एकरूप-एकसरोखा रहा है, जबकि इच्छाओं एवं रुचियों आदि में लगातार परिवर्तन होता रहा है । तदनन्तर मन में उठने वाले विचारों की ओर दष्टिपात करें तो देखेंगे कि चित्त में विचारों की कतारें लगातार आ रही हैं । पुराने विचार नष्ट हो रहे हैं, नये विचार उठ रहे हैं, फिर शान्त हो रहे हैं । बचपन से लेकर अब तक कई प्रकार के विचार उठे हैं, कोई पसन्द थे, कोई नापसन्द ! परन्तु विचारों को पसन्द या नापसन्द करने वाला कोई और तत्व है, जो अपनी सहमति या असहमति दर्शाता है। इसलिए विचार से 'मैं' तत्व अलग है, जो विचार प्रवाहों का निरीक्षण और नियन्त्रण करता है। इस प्रकार 'मैं' को ढूंढ़ने-जानने का प्रयत्न करें। इस सबके बाद चेतना को गहराई में उतरने देकर सोचना कि आखिर मैं कौन हैं ? कुछ देर विचाररहित रहकर आतुरतापूर्वक 'मैं कौन हूँ ? इसके उत्तर की प्रतीक्षा करो। फिर चित्त में उठने वाले विचारों को रोककर विचारों के उद्गमस्थानरूप विशुद्ध चैतन्यमूर्ति आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव करो। इस प्रकार चित्त को एकाग्र करके 'मैं कौन ?' इस विचारधारा पर आग्रहपूर्वक चिपके रहने से समग्र जीवन में, प्रत्येक दैनिकचर्या में अल्पसमय में ही पूर्वोक्त आत्मविचार ओतप्रोत हो जायेगा। फिर वह मन-वचन-काया की प्रत्येक प्रवृत्ति में आत्मस्मृति या आत्मजागृति रखकर देखेगा कि यह विचार या कार्य कोन व क्यों कर रहा है ? यह शुद्ध आत्मा के अनुरूप है या नहीं ? इस प्रकार शुद्ध आत्मा के साथ परमात्म भाव का तादात्म्य बढ़ने से ध्यान, ध्येय और ध्याता एकरूप हो जायेंगे। अतः आत्मज्ञान ही परमात्मज्ञान का मूल है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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