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________________ अपने को जानना : परमात्मा को जानना है । ६५ करने के लिए आत्महित की दृष्टि से धर्म-शुक्ल ध्यान करना आवश्यक है। और इस प्रकार की ध्यानसाधना से आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए बौद्धिकविकास, हृदय की विशालता, संयम, संकल्पशक्ति, सुदृढ़ता तथा चित को शान्त, शुद्ध एवं एकाग्र करने की शक्ति सम्पादन करना अनिवार्य है । अन्त:करण की ऐसी अवस्था में ही वास्तविक आत्मतत्व की उपलब्धि हो सकती हैं । साथ ही आत्मज्ञान पाने के लिए चित्त में त्याग और वैराग्य होना जरूरी है। आत्म (स्वरूप) स्मृति को टिकाए वही आत्मज्ञानी अभिप्राय यह है कि किसी के आत्मज्ञानी होने का पुष्ट प्रमाण यह है कि वह अपनी आत्मा को प्रत्येक प्रवृत्ति में विस्मृत नहीं करता, अपनी स्वरूप स्मृति यथाशक्ति टिकाये रखता है। आत्मजागृति पलपल में रखता है । वह प्रत्येक कायिक, मानसिक एवं वाचिक प्रवृत्ति करते समय गहराई में उतर कर आत्मनिरीक्षण करेगा। ____ आत्म-स्मृति टिकाए रखने की प्रक्रिया सामान्य मानव तन, मन, वचन और इन्द्रियों की प्रवृत्ति चालू होती है, तब उसके प्रवाह में ऐसा घुल-मिल जाता है कि उसे अपनी आत्मा का भान-ज्ञान या स्वरूप का स्मरण नहीं रहता। अतः आत्म (स्वरूप) स्मति टिकाये रखने के लिए प्रतिदिन निर्धारित समय पर अन्य सब प्रवृ. त्तियों को बन्द करके आत्मानुसन्धान का अभ्यास करना चाहिए । ध्यान के लिए एक आसन से स्थिर होकर मर्वप्रथम करीब १० गहरे श्वास लें। श्वासोच्छ्वास की क्रिया शान्त, धीमी और लयबद्ध हो । फिर आँखें बन्द करके अपनी सच्ची पहचान करने का प्रयत्न करें। तीव्र जिज्ञासापूर्वक मन ही मन प्रश्न करें- 'मैं कौन हूँ ?' इस प्रश्न का उत्तर शब्दों से न देकर मनोनेत्र के समक्ष उत्तर को उभरने दो। मनोनेत्र के समक्ष अपनी आकृति खड़ी करके विचार करो कि 'क्या यह शरीर मैं हैं ?' बीच में दूसरे फालतू विचारों को अवकाश न देकर चित्रपट पर अंकित दृश्य की तरह बचपन से लेकर आज तक शरीर में जो-जो परिवर्तन हए १ "मोक्ष: कर्मक्षयादेव स चात्मज्ञानतो भवेत् । ध्यानसाध्यं मतं तच्च, तद्ध्यानं हितमात्मनः ।।"- योगशास्त्र प्र.४, श्लोक ११३ २ विंशति विशिका १, गाथा १७-२०।। ३ .ग वैराग न चित्तमां थाय न तेने ज्ञान । -~~-आत्मसिद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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