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________________ १४ | अप्पा सो परमप्पा ले, तो क्या हम उसे ज्ञानी कह देंगे ? नहीं, उसने तो सिर्फ उन पुस्तकों में लिखी जानकारी (माहिती) हासिल की है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति विशाल ज्ञान भण्डारों में संग्रहीत सकल शास्त्रों में पारंगत हो जाए तो भी उसे उतने भर से ज्ञानी नहीं कहा जा सकेगा, क्योंकि उसने केवल उन शास्त्रों में लिखित बातों का संग्रह दिमाग में कर लिया है। इसलिए शास्त्रों, ग्रन्थों या अमुक भौतिक ज्ञान-विज्ञान शाखा की पुस्तकों के पढ़ने मात्र से उसे ज्ञानी नहीं कहा जा सकता। न ही शास्त्रों की न्यूनाधिक जानकारी से ही ज्ञानी-अज्ञानी की भेद-रेखा खींची जा सकती है। अधिक पढ़ा हुआ भी अज्ञानी हो सकता है और कम पढ़ा हुआ या शास्त्रज्ञ न होने पर भी महाज्ञानी हो सकता है । माषतुष क्या पढ़ा हुआ था ? परन्तु उसे आत्मा (स्व-चतेन) और जड़ (पर) का भेदविज्ञान दृढ़श्रद्धापूर्वक हो गया था, वह अपने स्वभाव में तल्लीन हो गया था, इस कारण उसे केवलज्ञान प्राप्त हो गया था। यथार्थ आत्मज्ञान अतः आध्यात्मिक क्षेत्र में सम्यग्ज्ञान वही माना जाता है, जो आत्मा से सम्बन्धित हो । एक मुमुक्ष या आत्मार्थी भी अन्य वस्तुओं का-जगत् का, परपदार्थों का भी ज्ञान प्राप्त करता है, वह आत्मा और जगत् (स्व-पर) के सम्बन्धों को समझने के लिए ही। वह पर-पदार्थ-जगत् का ज्ञान भी प्राप्त करता है तो केन्द्र में आत्मतत्व को दृष्टिगत रखकर ही। अतः आत्मशद्धि, तथा स्वपर-भेदविज्ञान के प्रकटीकरण में या आत्मा को परमात्मभाव तक पहुँचाने में जो ज्ञान सहायभूत हो, वही ज्ञान आत्मार्थी के लिए अपेक्षित होता है । आत्मार्थी मुमुक्ष का आत्मज्ञान आत्मा, जगत् और परमात्मा इन तीनों के परस्पर सम्बन्ध को बताने वाला होता है । इसीलिए योगशास्त्र में आत्मज्ञान का अर्थ किया गया है-आत्मा सम्बन्धी केवल बौद्धिक ज्ञान नहीं, अपितु आत्मा का स्व-संवेदन रूप प्रत्यक्ष ज्ञान ।1 ऐसा आत्मज्ञान तभी प्राप्त हो सकता है, जब आत्मा को शरीर से सर्वथा पथक समझे, कर्मोपाधिक व्यक्तित्व से अपनी शद्ध आत्मतत्व को अलग समझ । इस प्रकार का भेदविज्ञान करके स्व-संवेदनरूप साक्षात्कार १ आत्मज्ञानं च""आत्मन: चिद्र पस्य स्व-संवेदनमेव मग्यते । नातोऽन्यदात्मज्ञान नाम । -योगशास्त्र प्रकाश ४ श्लोक ३ की टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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