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सम्यश्रद्धा की एक पांख : तत्वार्थश्रद्धात | ४५
उत्तराध्ययनसूत्र में वीतराग तीर्थंकर भगवान् महावीर ने इसी प्रकार का लक्षण किया है
तहियाणं तु भावाणं सम्भावे उवएसणं ।
भावेण सद्दहंतस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं ॥1 इन (पूर्वोक्त नौ) तत्वरूप भावों-पदार्थों के सद्भाव-अस्तित्व के जिनोक्त उपदेश या भाव से-अन्तःकरण से जो श्रद्धा करता है, उसके उस सम्यश्रद्धान को सम्यक्त्व कहा गया है।
तत्व, अर्थ और श्रद्धान का विश्लेषण इस सम्बन्ध में प्रश्न होता है कि तत्व क्या है ? व्याकरणशास्त्र के अनुसार तत्व का अर्थ होता है
तस्य भावस्तत्वम्-जिस पदार्थ का जो भाव है, स्वभाव है, स्वरूप है या धर्म है, वही उसका तत्व है। अर्थात-जो पदार्थ जिस रूप में व्यवस्थित है, उसका वैसा होना तत्व है । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक पदार्थ में पृथक्-पृथक् धर्म रहता है। उसी धर्म पर से उस पदार्थ का निश्चय किया जाता है । उस धर्म को तत्व कहते हैं।
यदि तत्व-श्रद्धानं- (तत्व पर श्रद्धान) ही सम्यग्दर्शन का लक्षण किया जाता तो यह लक्षण दोषयुक्त होता । सांख्यदर्शन में उक्त पच्चीस तत्वों पर श्रद्धान करना या वैशेषिक दर्शन में कथित द्रव्य, गुण, कर्म आदि सात तत्वों (पदार्थों) पर श्रद्धा करना, अथवा वेदान्त दर्शन के अनुसार एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म-एक मात्र ब्रह्म ही तत्व है, संसार में दृश्यमान जड़ और चेतन समस्त पदार्थ ब्रह्मरूप हैं, इस प्रकार एक ही ब्रह्मतत्व पर श्रद्धान को 'सम्यग्दर्शन' कहना पड़ता। यह अभीष्ट एवं युक्तिसंगत नहीं, तथा सिद्धान्तविरुद्ध भी है। इसलिए कहा गया--- तत्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन है।
__ यदि 'अर्थ श्रद्धानं'-अर्थों पर (या अर्थ मे-भाव से श्रद्धा करना) इतना ही सम्यग्दर्शन का लक्षण किया जाता तो पहली आपत्ति तो यह होती कि संसार में अर्थ पदार्थ तो एक दो नहीं, अनन्त हैं। किस पर श्रद्धा की जाए, किस पर नहीं ? इस प्रकार व्यक्ति भूलभुलैया में पड़ जाता । दूसरी आपत्ति यह आती कि अर्थ शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, यथा-धन,
१. उत्तराध्ययन सूत्र अ. २८ गा. १५
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