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२६० | सद्धा परम दुलहा विषयों और कषायों से उपरत हो जाता है, मोहनीय कर्म का क्षय कर देता है, तब तेरहवें गुणस्थानमें पहुँचकर वीतराग-केवल ज्ञानी बन जाता है । उसके चार घाती कर्मों का क्षय हो जाता है, शरीर छूटने (आयकर्म क्षय होने) के साथ ही साथ ही चार अधाती कर्म भी सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। तत्पश्चात् उसका परिनिर्वाण हो जाता है, वह परम आत्मशान्ति को प्राप्त होता है । जो निर्वाण प्राप्त कर लेता है, वह परिनिवृत्त परम शान्त हो जाता है। उसका
अस्तित्व तो स्वतः सिद्ध है। किन्तु अक्रियावादी परिनिर्वाण और परिनिर्वृत्त को नहीं मानते । वे कहते हैं कि परिनिर्वाण होने के बाद आत्मा तो गुणशून्य हो जाता है, या क्षणिक अरूपी एवं निराकार हो जाता है। तब भला उसके परिनिर्वृत्त होने की साक्षी कौन देगा? जिसे परिनिर्वाण (मोक्ष) प्राप्त हुआ है, वह तो कहने आता हो नहों। इसलिए परिनिर्वाण
और परिनिर्वृत्त दोनों के अस्तित्व में सन्देह है । जैनदर्शन ऐसे परिनिर्वृत्त के लिए कहता है -
अरूविणो जीवघणा नाणदंसणसन्निया।
अउलं सुहं संपत्ता उवगा जस्स नत्थि उ ॥ वे सिद्ध परमात्मा अरूपी हैं, घन रूप हैं, अनन्तज्ञान-दर्शन से युक्त है, अतुल सुख राशि प्राप्त हैं। ऐसे चिन्मय एवं मंगलमय सिद्ध देव के लिए कोई भी उपमा नहीं है।
निर्वाण के बाद परिनिर्वृत्त आत्मा का जहाँ अवस्थान होता है, उसे सिद्धि-स्थान या सिद्धालय कहते हैं। उसका अस्तित्व भी क्रियावादी मानते हैं । आगम प्रमाण युक्त उनका कहना है
लोगेगदेसे ते सब्वे, नाण-दसण-सग्निया।
संसार-पार-नित्यिणा, सिद्धि वरगई गया । संसार सागर के पार पहुँचे हुए वे सभी सिद्ध अनन्तज्ञान-दर्शन से युक्त होकर लोक के एक देश (अग्रभाग) में अवस्थित श्रेष्ठ सिद्धिगति को प्राप्त हो जाते हैं।
उपर्युक्त समस्त तत्त्वों का जानना, मानना और उनमें उत्कृष्ट आस्था रखना क्रियावाद है। भ० महावीर ने क्रियावादी के विषय में स्पष्ट कहा है
"सव्वं अत्थिभावं अस्थित्ति क्या। सव्वं नत्थिभाव नस्थित्ति वयह।"
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