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________________ आस्तिक्य का चतुर्थ आधार : क्रियावाद | २८५ और अकामनिर्जरा । बिना ही उद्देश्य से, बिना मन से जो कष्ट सहे जाते हैं, या तप हो जाता है, उसे अकामनिर्जरा कहते हैं। नारक तिर्यंच या दुखित मानव अकामनिर्जरा करते रहते हैं, परन्तु दूसरी ओर उनके मन में समभावान होने, शान्ति, धैर्य और स्वेच्छापूर्वक कष्ट सहन न करने या कर्मफल न भोगने से नये कर्मों का बन्ध होता रहता है। सकाम निर्जरा ही क्रियावादियों को अभीष्ट है । यही मोक्ष की ओर ले जाने वाली है, यद्यपि दोनों प्रकार की निर्जरा का अस्तित्व क्रियावादी मानते हैं। अक्रियावादी कहते हैं कि आत्मा नामक कोई वस्तु ही नहीं है, केवल शरीर है, वही सब कुछ है । वह यहीं भस्म हो जाता है, तब किसके लिए निर्जरा की जाए? क्यों कष्ट भोगा जाए ? परन्तु क्रियावादियों का कहना है कि आत्मा तो अनेक प्रमाणों से सिद्ध है । ऐसी स्थिति में संसारी आत्मा के कर्मबन्ध होता ही रहे, निर्जरा ही न हो, तो वह मोक्ष या मुक्ति कैसे प्राप्त कर सकेगा ? अथवा कर्मनिर्जरा न हो तो मोक्ष के लिए वह बाह्याभ्यन्तर तप, परीषहजय, समिति-गुप्तिपालन, चारित्र-पालन करेगा ही क्यों ? क्यों कष्टों को समभाव से सहेगा ? संवर और निर्जरा दोनों मोक्ष प्राप्ति में सहायक हैं । संवर से नये कर्मों का आगमन रुक जाता है, और निर्जरा से पूर्वकृत कर्मों का क्षय होता जाता है, कुछ भोग कर और कुछ तपश्चर्या, परीषह-सहन आदि करके । इस प्रकार मोक्ष की जननी, तथा आत्मा की निजी सम्पत्ति पर अधिकार दिलाने वाली निर्जरा के अस्तित्व को माने बिना कोई चारा नहीं। अरिहंतों और सिद्धों का अस्तित्व-अक्रियावादियों का कहना है कि अरिहंत अथवा अर्हत्पद को हम नहीं मानते क्योंकि अरिहन्त अभी हमारे समक्ष प्रत्यक्ष नहीं है, और प्रत्यक्ष हों तो भी उनके ज्ञान-दर्शन आदि गुण भी हमें प्रत्यक्ष नहीं होते। वे भी हमारे समान मानव हैं। उनको मानने, पूजने या विशेष महत्व देने से हमें क्या मतलब है ? क्रियावादियों का कहना है कि अरिहंत भले ही आज प्रत्यक्ष न हों, किन्तु उनका ज्ञान, दर्शन, उनके द्वारा प्ररूपित सिद्धान्त हमारे समक्ष हैं। अरिहंत चारों कर्मों का क्षय कर डालते हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, इन चार आत्मगुण घातक कर्मों से मुक्त होकर वे अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तआत्मिक सुख और अनन्तवीर्य (शक्ति) इन चार अनन्त आत्मिक गुण सम्पदाओं को प्राप्त करते हैं। वे क्षायिक सम्यक्त्व के धनी होते हैं । वे जीवनन्मुक्त होकर जब तक आयुष्य है तब तक भूमण्डल पर विचरण करते हैं, आयुष्य क्षय होने के साथ ही शेष चार अघाती कर्मों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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