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________________ आस्तिक्य का चतुर्थ आधार : क्रियावाद | २८३ वेदान्त भी काल्पनिक बन्ध मानता है, और उस अज्ञानजनित वैचारिक बन्ध की निवृत्ति - मैं किसी प्रकार बद्ध नहीं, अबद्ध हूँ, मुक्त हूँ,' इस प्रकार की प्रतिपक्षी भावनामात्र से नहीं होती। यदि इसी प्रकार से आत्मा बन्धरहित हो जाता तो फिर रत्नत्रयसाधना, त्याग, तप, संयम, आदि की क्या आवश्यकता रहती ? हाँ क्रियावादी जैनदर्शन निश्चयनय से जीव (परम आत्मा) को अरूपी अमूर्त, मुक्त, शुद्ध, और बन्धरहित मानता है. किन्तु व्यवहारनय से तो संसारस्थ जीव कर्मों से बद्ध और रूपी है। इसलिए बन्ध का कथमपि अपलाप नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार अक्रियावादी मोक्ष भी नहीं मानते। उनका कहना है, आत्मा के जब बन्ध ही नहीं है, तब मोक्ष को क्यों माना जाए ? ये दोनों परोक्ष हैं, इन्द्रियगोचर नहीं हैं । आर्यसमाजी आदि कुछ मत यह मानते हैं, मोक्ष तो है, पर वह अस्थायी, अनित्य और अशाश्वत हैं, क्योंकि मोक्ष होने के बाद भी मुक्त जीव कुछ दिन वहाँ रहकर वापस संसार में लौट आता है। मीमांसकों का यह मत भी भ्रान्त है कि आत्मा के अनादि बन्धन छूट नहीं सकते, कवल सादि बन्धन ही हटते हैं । वस्तुतः बन्धन कोई भी हो, बुरा है, तथा बन्धन कभी अनादि नहीं हो सकता। कर्म प्रवाहरूप से अनादि अवश्य हैं, अतः आत्मा कर्मों के उस प्रवाह को तपस्या, ध्यान, या चारित्रपालन द्वारा क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है। अनेक महान् वीतराग आत्माओं ने मोक्ष प्राप्त किया है। अतः बन्धन से सर्वथा मुक्ति (मोक्ष) भी है। ऐसा क्रियावादियों का कथन है।। पुण्य पाप का अस्तित्व----क्रियावादी पुण्य और पाप दोनों का अस्तित्व मानते हैं । जबकि नास्तिक पुण्य को मधुर कल्पना और पाप को कटु कल्पना कहकर दोनों को नहीं मानते । पुण्य और पाप न माना जाए तो यहाँ अच्छे कर्मों में प्रवृत्त होने और बुरे कर्मों से निवृत्त होने का पुरुषार्थ कोई क्यों करेगा ? अथवा कई लोग कहते हैं कि पूण्य को मानने की क्या आवश्यकता है ? पाप के बढ़ने से दुःख और पाप के घटने से सुख होता है इसलिए पाप को ही मान लिया जाए। अथवा पुण्य को ही मान लिया जाए । पुण्य के ह्रास से दुःख और पुण्य की वृद्धि से सुख की प्राप्ति होती है । ये दोनों मत एकान्तवादी होने से त्याज्य हैं, क्योंकि प्राणी के जीवन में पुण्य और पाप दोनों को मात्रा रहती है। कहा भी है कि --- _ 'फुसइ पुण्णपावे पञ्चायंति जीया, सफले कल्लाण-पावए ।' जीव पुण्य और पाप को स्पर्श करते हुए उनके अच्छे-बुरे फल को Jain Education International ional For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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