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________________ कर्मवाद : आस्तिक्य का प्राण | २७७ (२) भाषा की वक्रता से (३) भावों की वक्रता से एवं (४) योगों के विसंवादन से। (७) गोत्र कर्म बन्ध के कारण-आठ कारण हैं-जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपोमद, लाभमद, श्र तमद और ऐश्वर्यमद करने से नीच गोत्र कर्म का और इसके विपरीत इन आठों मदों को न करने से उच्च गोत्र कर्म का बन्ध होता है। (E) अन्तराय कर्मबंध के ५ कारण--(१) दानान्तराय-दान देने में विघ्न डालने से, (२) लाभान्तराय-किसी को लाभ मिलता हो, उसमें विघ्न डालने से, (३) भोगान्तराय-भोग्य वस्तु को भोगने में विघ्न डालने से, या विघ्न होने से, (४) उपभोगान्तराय-उपभोग्य वस्तु के उपभोग करने में अन्त राय डालने या विघ्न होने से, तथा (५) वीर्यान्तराय-शुभकार्यविषयक पुरुषार्थ में विघ्न उपस्थित होने या करने से । उत्तर प्रकृतियां इन आठों कर्मों की उत्तर प्रकृतियाँ १४८ या १५८ होती हैं यथा-~-ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की नौ, वेदनीय की २, मोहनीय की २८, आयुष्य कर्म की ४, नामकर्म की ६३ या १०३, गोत्र कर्म की २ और अन्तराय कर्म की ५। ___ कर्मवाद पर उत्कृष्ट आस्था से आस्तिक्य को सुदृढ़ता इसी प्रकार आठों ही कर्मों का क्रम, उनकी स्थिति, उदय, उदीरणा, सत्ता, अनुभाव (फलविपाक), उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण उपशम, निधत्ति और निकाचना, इत्यादि कर्मों से सम्बन्धित समस्त जानकारी कर्मवाद के अन्तर्गत समझ लेनी चाहिए। कर्मवाद पर उत्कृष्ट आस्था की महत्वपूर्ण चिन्तनधारा ही आस्तिक्य को सुदृढ़ बनाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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