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कर्मवाद : आस्तिक्य का प्राण | २७३
प्रश्न हो सकता है--कर्म तो जड़ हैं, जड़ कर्मों को क्या ज्ञान है-कि किसे, कहाँ, किस रूप में शुभ या अशुभ फल प्रदान करना है ? जब ज्ञान नहीं तो, वे जड़ कर्म जीवों को उनके कर्मों का फल कैसे भुगवा सकते हैं ?
जैनदर्शन का कहना है कि जड़ पदार्थ भी बिना किसी ज्ञान या प्रेरणा के कार्य करते ही हैं, अपना प्रभाव डालते ही हैं। रोग मिटाने के लिए रोगी दवा खाता है, जड़ दवा को क्या ज्ञान है, शरीर में जाकर रोग को ठीक करने का ? मिश्री को क्या ज्ञान है, मुह में डालते ही उसे मीठा करने का ? इसी प्रकार जड़ कर्मों को ज्ञान न होते हुए भी वे जीव के राग-द्वेषयुक्त परिणामों से कर्मपरमाण आकृष्ट होकर आत्मा के साथ सम्बद्ध होते हैं, तब शुभाशुभ अध्यवसायानुसार उन कर्मों में शुभ-अशुभ फल देने की शक्ति भी उत्पन्न हो जाती है । अतः अपना कर्म ही स्वयं फलदाता है, स्वयं जीव ही कर्मफल भोक्ता है।
कर्मबन्ध के कारण और प्रकार कर्मबन्ध के मुख्य कारण राग और द्वेष हैं । तत्त्वार्थसूत्र में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पाँचों को, संक्षेप में कषाय और योग को-कर्मबन्ध के कारण बताए हैं। जीव के रागद्वषादि परिणामों के निमित्त से आकृष्ट होकर मिथ्यात्वादि पंचास्रवरूप द्रव्यकर्म आत्मा के साथ दूध-पानी की तरह घुलमिल जाते हैं -बंध जाते हैं।
कर्म के दो रूप शास्त्रों में बताए हैं-कर्म और नोक म । नोकर्म कर्म के फल के रूप में दृष्टिगोचर होता है। जैसे-शरीर, धन, साधन, परिवार आदि कर्मविपाक की सहायक सामग्री नोकर्म है । ये शुभाशुभ कमबन्ध के परिणाम भी हैं । किन्तु नोकर्म अपने आप में आत्मा के लिए बन्धनकर्ता नहीं होते । पूर्वोक्त नोकर्मभूत पदार्थों पर राग-द्वेष करने या इन्हें सुख-दुःखरूप मानने से ये कर्मबन्ध के कारण बनते हैं। एक सूत्र इस सम्बन्ध में और भी ध्यान देने योग्य है--
'क्रियाए कर्म, उपयोगे धर्म और परिणामे बंध'
जीव के परिणामों में जहाँ रागद्वेष या कषाय की स्निग्धता होगी, वहीं कर्मरज चिपकेगी, कर्मबन्ध होगा।
आत्मा के योग और रागद्वेषादि काषायिक भावों के निमित्त से जब कर्म-वर्गणा के परमाणु-पुद्गल कर्मरूप में आत्मा से सम्बद्ध होते हैं, तब
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