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२७२ । सद्धा परम दुल्लहा
कर्मफल दाता कौन और कैसे ?
जैनदर्शन की मान्यता है कि कर्म करने में जीव जैसे स्वतंत्र है, वैसे फल भोगने में भी स्वतंत्र है। जैसे-मकड़ी अपना जाला स्वयं बनाती है और स्वयं ही उसमें फंसती है। शराबी शराब पीता है तो क्या नशा चढ़ाने के लिए कोई तीसरी शक्ति आती है ? मिर्च खाने वाले का मह जलाने के लिए क्या कोई तीसरा व्यक्ति आता है ? इसलिए जैनदर्शन ईश्वर या किसी अदृश्य शक्ति को कर्म का फल देने वाला नहीं मानता। जबकि वैदिक परम्परा कहती है कि जीव स्वय अज्ञ है, वह अपने शुभ या अशुभ कर्म का जोड़-तोड़ कर नहीं सकता इसलिए बहुधा अशुभ कर्म का फल स्वयं भोगना नहीं चाहता । सभी जीव यही चाहते हैं कि अशुभकर्म का फल न मिले, किन्तु किसी के चाहने न चाहने से कर्म अपना फल दे ही देते हैं । अज्ञानतावश ही कोई विष खाएगा तो तदनुरूप कर्म उसका फल देने से नहीं रुकते। अगर कोई दूसरा कर्म का फल देता है तो स्वकृत कर्म निरर्थक हो जाएँगे। किसी देवी-देव, शक्ति या परमात्मा को कर्मफल-दाता मानने पर तो उन पर पक्षपात, अन्याय आदि कई आक्षेप आएंगे। इसीलिए चाणक्य नीति में कहा गया है--
स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते ।
स्वयं भमति संसारे स्वयं तस्माद् विमुच्यते ॥ 'आत्मा स्वयं ही कर्म करता है और स्वयं ही उसका फल भोगता है। वह स्वयं ही कर्मवश संसार में परिभ्रमण करता है और स्वयं ही कर्मों से मुक्त होता है।'
चोर और दुराचारी चोरी और दुराचार करने पर उसका फल भोगना नहीं चाहते, यह बात ठीक है, लेकिन कर्म करने के बाद जीव चाहे या न चाहे, कर्म परमाणु तो समय आने पर अपना प्रभाव अवश्य दिखाते हैं। निष्कर्ष यह है कि कोई भी जीव कर्म का बन्ध करने में स्वतंत्र है, किन्तु कर्म कर लेने पर यानी आत्मा के साथ कर्मबन्धन हो जाने पर वह चाहे कि उसका फल न मिले या इच्छानुकुल मिले, यह हो नहीं सकता। फिर तो शुभ या अशुभ कर्मपरमाणु सुख या दुःख के रूप में अपना प्रभाव दिखाते ही हैं ! अर्थात् . कर्म करने में जैसे जीव स्वतंत्र है, वैसे उसका फल भोगने में परवश स्वकृत कर्म के अधीन है। वृक्ष पर चढ़ने के लिए व्यक्ति स्वतंत्र है, परन्तु प्रमादवश गिर जाए तो उसके वश की बात नहीं।
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