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२३६ | सद्धा परम दुल्लहा
'जे लोक्कइ से लोए" जो अवलोकन किया जाता है, या प्रत्यक्ष दिखाई देता है, वह लोक है । आम जनता में लोक के स्थान में जगत् या विश्व शब्द प्रचलित है । परन्तु लोक की यह स्थूल परिभाषा है ।
श्रमण भगवान् महावीर ने लोक को षद्रव्यात्मक माना है । इसीलिए उन्होंने लोकवाद को आस्तिकता का आधार तथा श्रुतधर्म (सम्यग्दर्शन ज्ञान) का अंग माना है । उस युग में लोक के सम्बन्ध में बहुत चर्चा चलती थी। लोग पूछते थे- "लोक क्या है ? वह कितने प्रकार का का है ? उसका आकार कैसा है ? वह शाश्वत है या अशाश्वत ? वह अन्तवान् है या अनन्त ? वह कितना लंबा-चौड़ा है ?' तथागत बुद्ध ने १० प्रश्नों को अव्याकृत (अकथ्य या अवर्णनीय) कहकर उनमें से लोक सम्बन्धी चार प्रश्नों का बिलकुल उत्तर नहीं दिया । किन्तु भगवान् महावीर ने कहा-- लोक कथंचित् शाश्वत, कथंचित् अशाश्वत है; कथंचित् अन्तवान् है, कथंचित् अनन्त है; कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य है । तथा उक्त लोक को चार प्रकार का बताया है- (१) द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक और भावलोक। द्रव्यलोक
जैनदर्शन के अनुसार उत्तराध्ययनसूत्र में द्रव्यलोक को षड्द्रव्यात्मक माना गया है। छह द्रव्य ये हैं-(१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) जीवास्तिकाय, (५) पुद्गलास्तिकाय, और (६) काल । भगवती सूत्र में काल को छोड़कर लोक को पंचास्तिकायरूप* कहा गया है । उत्तराध्ययन सूत्र में लोक को जीव-अजीव (चेतन-जड़) मय बताया है।
१ भगवती सूत्र श. ५ अ ६ सू. २२५ २ गोयमा ! चउविहे लोए पण्णत्ते तंजहा-दव्वलोए खेत्तलोए काललोए भावलोए ।
- भगवती. ११/१०/४२० ३ धम्मो अधम्मो आगासं, कालो पुग्गल जंतवो।
एस लोगोत्ति पन्नत्तो जिर्णेहिं वरदंसिहि ॥ -उत्तरा० अ. २८ गा. ७ ४ किमियं भते ! लोएत्ति पवच्चइ ?
गोयमा ! पंचत्थिकाया, एस णं एवनिए लोएत्ति पवुच्चड तं०... धम्मत्थिकाए अहम्मत्थिकाए जाव पोग्गलत्थिकाए।
-भगवती १३/४/८१ ५ जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए।
--उत्तरा० ३६/२
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