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२२८ | सद्धा परम दुल्लहा
तलवार से अलग करने की तरह इन पर - पदार्थों से आत्मा को अलग करने भी आत्मवाद का है । यह परभाव पक्का अभ्यास करता है कि ज्ञान आत्मा ही मेरा है, दूसरे समस्त ये सब कर्मोदय से प्राप्त होने से
की शक्ति आ जाती है । यह चमत्कार और स्वभाव का पृथक्करण करने का स्वभाव वाला शाश्वत और शुद्ध अकेला पदार्थ आत्मबाह्य हैं, वे शाश्वत नहीं हैं । अपने कहे जाते हैं, वस्तुतः वे अपने नहीं हैं ।"
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आवश्यक सूत्र की संस्तार - पौरुषी में एकत्व भावनामूलक गाथाएं भी इसी का समर्थन करती हैं
एगोऽहं कत्थि मे कोई, नाहमन्नस्स कस्सइ । एवमदीणमणसो पाणमसाई ॥११॥
एगो मे सासओ अप्पा, ना- दंसण-संजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सत्रे संजोगलक्खणा ॥ १२ ॥
अर्थात् - मैं निपट अकेला हूँ। मेरा कोई नहीं है, न ही मैं किसी दूसरे का हूँ ! इस प्रकार अदीन मन से साधक आत्मा को अनुशासित करे ।
इस प्रकार का स्पष्ट निश्चय आत्मवादी को हो जाता है कि मैं आत्मा हूँ, एकाकी हूँ, शरीर से भिन्न हूँ । आत्मवादी होने से पहले तक वह सुनता तथा मानता आया था, परन्तु आत्मवादी बनने के पश्चात् तो वह इस तथ्य को भलीभांति हृदयंगम कर लेता है । यह दृश्यमान शरीर आदि अंगोपांग मेरे लिए हैं. मेरे नहीं, मैं शरीरादि नहीं। शरीर के स्वार्थ, स्वभाव, सुखदु:ख, लाभ आदि अलग हैं, मेरे (आत्मा के) सुख-दुःख, स्वार्थ आदि अलग हैं । इस प्रकार आत्मवादी समय आने पर शरीर का मोह एक क्षण में छोड़ देता है । वह शरीरादि का मोह-ममत्व छोड़कर आत्मचिन्तन में एकाग्र हो सकता है । आत्मवादी दृढ़तापूर्वक शीघ्र निर्णय कर लेता है कि यदि काया, माया या सरमाया (धन) आदि मेरे होते तो मेरे साथ जाते, यहीं नष्ट क्यों हो गये ? अगर शरीर को ही आत्मा कहा जाता है तो वह हड्डी, मांस, मज्जा, रक्त, मल-मूत्र आदि घिनौनी वस्तुओं से भरा शरीर तो हेय है, घृणित है, पर आत्मा शुद्ध आत्मा तो हेय या वृणित नहीं है । इसके अतिरिक्त आत्मवादी अपनी शक्ति, क्षमता को छिपाता नहीं, अतः वह कर्मों के
१ एकः सदा शाश्वतिको ममात्मा, विनिर्मलः साधिगमस्वभावः । बहिर्भवा संत्यपरे समस्ताः, न शाश्वताः कर्मभवाः स्ववीयाः ।
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