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________________ २१८ | सद्धा परम दुल्लहा (७) 'मैं नहीं हूँ' इस प्रकार का संशय भी चेतन को होता है, अचेतन को नहीं । इस दृष्टि से भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। और भी अनेक युक्तियों और तर्कों द्वारा आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। उपनिषदों में आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व की सिद्धि आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व मानते हुए उपनिषदों में इस विषय की यथातथ्य चर्चा की गई है केनेषितं पतितं प्रेषितं मनः ? केन प्राणः प्रथमं प्रति युक्तः ? केनेषितां वाचमिमां वदन्ति ? चक्ष : श्रोत्र क उ देवो युनक्ति ? अर्थात्-मन किसकी प्रेरणा से दौड़ाया हुआ (अपने विषय में) दौड़ता है ? किसके द्वारा प्रथम प्राण संचार सम्भव हुआ? किसकी चाही हुई (अभीष्ट) इस वाणी को बोलता है ? कौन देवता देखने और सुनने की व्यवस्था बनाता है ? इसका समाधान यदि खोजा जाए तो आत्मा ही वह तत्त्व है, जो मन, बुद्धि, चित्त, प्राण, वाणी, नेत्र और श्रोत्र आदि को अपने-अपने विषय में गति-प्रगति करने की प्रेरणा देता है । मन अपने आप नहीं दौड़ता। मन को दिशा देने वाली मूल सत्ता का नाम 'आत्मा' है। मन स्वतन्त्र चिन्तन में समर्थ होता तो उसकी दिशा एक ही रहती, उसका चिन्तन-मनन एक ही तरह का होता । परन्तु यह स्पष्ट है कि मन को भी पतंग की तरह उड़ाने वाला कोई और ही है। मन आत्मा का एक उपकरण है, वह किसी भी दिशा में स्वेच्छापूर्वक दौड़ नहीं सकता। अगर मन स्वेच्छा से किसी भी दिशा में दौड़ सकता तो मृत्यु के पश्चात् शरीर से आत्मा के पृथक हो जाने के बाद मन क्यों नहीं दौड़ता, क्यों नहीं मनन-चिन्तन करता? कारण वही है। दूसरा प्रश्न है-मां के गर्भ में बालक के आने पर सर्वप्रथम प्राण का संचार कौन करता है ? गर्भस्थ शिशु में जीवन-संचार के रूप में हलचलें कैसे पैदा होती हैं ? रक्त, मांस, मज्जा, अस्थि आदि सब तो जड़ हैं। जड़ तो चेतन ही नहीं सकता। उत्तर है कि यह सब कर्तृत्व 'आत्मा' का है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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